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मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य में शान्ताभक्ति
डॉ० प्रेमसागर जैन, एम० ए०, पी-एच० डी०
पहले के प्राचार्यों ने 'शान्ति' को साहित्य में श्रनिर्वच नीय प्रानन्द का विधायक नहीं माना था, किन्तु पण्डितराज के प्रकाटघ तर्कों ने उसे भी रस के पद पर प्रतिष्ठित किया तब से अभी तक उसकी गणना रसो में होती चली श्रा रही है । उसे मिला कर नौ रस माने जाते है। जैनाचार्यों ने भी इन्ही नौ ग्सो को स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने 'शृंगार' के स्थान पर शान्त को रसराज माना है। उनका कथन है कि अनिर्वचनीय श्रानन्द की सच्ची अनुभूति, रागद्वेष नामक मनोविकार के उपशम हो जाने पर ही होती है । राग-द्वेप से सम्बन्धित अन्य आठ रसो के स्थायी भावो से उत्पन्न हुए आनन्द में वह गहरापन नही होता, जो शान्त में पाया जाता है । स्थायी आनन्द की दृष्टि से तो शान्त ही एक मात्र रस है । कवि बनारसीदास ने 'नवमो सान्त रसनिको नायक १ माना है । उन्होंने तो रसो का अन्तर्भाव भी शान्तरस मे ही किया है। डा० भगवानदास ने भी अपने 'रस मीमांसा' नाम के निबन्ध में अनेकानेक संस्कृत उदाहरणों के साथ, 'शान्त' को रसराज सिद्ध किया है ।
जहाँ तक भक्ति का सम्बन्ध है, जैन और प्रजन
१. " प्रथम मिगार वीर दूजो रस,
तीजी रस करुना सुम्वदायक | हास्य चतुर्थ रुद्र रस पंचम,
छट्ठम रस बीभच्छ विभायक ॥
सप्तम भय श्रटुम रस अद्भुत,
नवमों सान्त रसनिको नायक ।
ए नव रस एई नव नाटक,
जो जहं मगन सोई तिहि लायक ॥ " बनारसीदास नाटक समयसार, प० बुद्धिलाल श्रावक की टीका सहित, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १०।१३३, पृ० ३६१ ।
सभी ने 'शान्त' को ही प्रधानता दी है। यदि शाण्डिल्य के मतानुसार 'परानुरक्तिरीश्वरे' ही भक्ति है, तो यह भी ठीक है कि ईश्वर में 'परानुरक्तिः' तभी हो सकती है, जब अपर की अनुरक्ति समाप्त हो । अर्थात् जीव की मनःप्रवृत्ति संसार के अन्य पदार्थों से अनुराग हीन होकर, ईश्वर में अनुराग करने लगे, तभी वह भक्ति है, अन्यथा नही । और संसार को प्रसार, प्रनित्य तथा दुखमय मान कर मन का श्रात्मा श्रथवा परमात्मा में केन्द्रित हो जाना ही शान्ति है । इस भांति ईश्वर में 'परानुरक्तिः, का अर्थ भी शान्ति ही हुया । स्वामी सनातनदेवजी ने अपने 'भाव भक्ति की भूमिकाएँ' नामक निवन्ध में लिखा है, "भगवदनुराग बढ़ने से अन्य वस्तु धीर व्यक्तियो के प्रति मन में वैराग्य हो जाना भी स्वाभाविक ही है । भक्ति-शास्त्र में भगवत्प्रेम को इस प्रारम्भिक अवस्था का नाम ही 'शान्तभाव' है२" नारद ने भी अपने 'भक्तिमूत्र' में सावस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च' को भक्ति 'माना है । ३ इसमे पडे हुए 'परमप्रेम' से यह ही ध्वनि निकलती है कि ससार से वैराग्योन्मुख होकर एकमात्र ईश्वर से प्रेम किया जाये । शान्ति मे भी वैराग्य की ही प्रधानता है । भक्तिरसामृतसिन्धु में 'अन्याभिलापिताशून्यं कृष्णानुशीलनं उत्तमा भक्ति: ४ उपर्युक्त कथन का ही समर्थन करती है । यह कहना उपयुक नहीं है कि अनुरक्ति २. स्वामी सनातनदेव जी, भावभक्ति की भूमिकाएँ, कल्याण, भक्तिविशेषांक, वर्ष ३२, अंक १ पृ०
३६६ ।
३. देखिए 'नारद प्रोक्तं भक्तिसूत्र', खेलाडीलाल एण्ड सज, वाराणसी, पहला सूत्र ।
४.
भक्ति रसामृतसिन्धु गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, प्रच्युत ग्रंथमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८८, प्रथम संस्करण ।