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मोम महम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष १८ किरण-५
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वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मवत् २४६२, वि० स० २०२२
दिसम्बर सन् १९६५
आचार्य परमेष्ठी पवयण-जलहि-जलोयर-ण्हायामल-बुद्धि-सुद्ध-छावासो । मेरुव पिप्पकंपो सूरो पंचागरणो वज्जो ॥ देस-कुल-जाइ-सुद्धो सोमंगो संग-भंग-उम्मुक्को। गयरणव णिरुवलेवो पाइरियो एरिसो होई ॥ संगह-रिणग्गह-कुसलो सुतत्त्थ-विसारो पहिय-कित्तो। सारण-वारण-साहण-किरियुज्जुत्तो हु प्राइरियो ।
अर्थ-प्रवचनरूपी समुद्र-जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति मे छह मावश्यकों का पालन करते है, मरु पर्वत के समान निष्कम्प
ति है, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग परिग्रह से गहत है। प्राकाश के समान निमल है ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी होने है। जो संघ के संग्रह-दीक्षा और निग्रह-शिक्षा या प्रायश्चित्य देने में कुमाल है, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ विशारद है. जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् पाचरण, वारण-निपंध और साधन ब्रतों की रक्षा करनेवाली क्रियानों में निरन्तर उद्युक्त है, वे प्राचार्य परमेष्टी है। उन्हें मेरा नमस्कार हो।