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३८ ईसाई तथा ७वें बौर विश्व-सम्मेलनों की श्री जन संघ को प्रेरणा
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ने भारत में प्राकर अपना कितना महत्वपूर्ण स्थान कर नागों विश्व में जैन धर्म का प्रचार, प्रसार तथा 'सवी लिया है ? वह देखने एवं अनुभव करने जैसा है । क्या जीव करूं शायन रसी' प्रादि महान् दिव्य भावनाओं को जैन जैसा पवित्र संध भी वर्तमान विश्व के मानव समाज अलग रखते हुए यदि जैन संघ को अपना सुदृढ़ अस्तित्व के लिए कुछ उपयोगी कार्य नहीं कर सकता? सचमुच भी टिकाए रखना हो तो समग्र भेद, प्रभेद, पेटाभेदों को में यह विचारणीय है कि अविभक्त श्रीजनसंघ के अग्रणी
अलग रख कर सम्पूर्ण श्री जैनसंघ को हृदय से प्रापसी प्राचार्य, विद्वान मुनिवर एवं धर्मनिष्ठ सद्गहस्थों को इस ।
ऐक्य का अनुभव करना चाहिए। इस प्रसंग में करीब बात का अविलम्ब विचार करना चाहिए।
वर्ष पूर्व बना हुमा एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग याद माता है कि श्री जैनसंघ की वर्तमान स्थिति कितनी दुःखद है -'एक विचारक बुद्धिमान माधु ने अपने पाराध्य पाद उस पर अपने विचार उपस्थित करते हुए स्यावाद महा पूज्य गुरुवर की सेवा में विनम्र निवेदन किया कि 'समग्र विद्यालय काशी के प्रधानाचार्य, मर्वेसर्वा, पण्डित थी जैनसंघ के हित की किसी भी प्रवृत्ति में मुक्तमन से रस कैलाश चन्द्र जी शास्त्री जैसे प्रमुख विचारक, विद्वान् तथा लेने की अनुमति अर्थात् आज्ञा मिलनी चाहिए'। गुरू धर्मनिष्ठ महानुभाव मथुरा से प्रकाशित होने वाले १०- महाराज को वह बात मंजूर न थी। फलतः गुरू महाराज १२-६५ के "जैन संदेश" के सम्पादकीय लेख में लिखते शिष्य को छोड़ कर अन्यत्र विहार कर गये। जबकि होना हैं कि 'भगवान् महावीर एवं जैनधर्म का नाम भी भारत यह चाहिए था कि-जंन साधु समाज को जैन अजैन जैसे के सार्वजनिक क्षेत्रों में से दिन प्रतिदिन कम होता जा क्षुद्र मामूली भेदों से भी ऊपर उठकर विश्व के मानव रहा है। अहिंसा की चर्चा या विचारणा के समय भी समाज के साथ ही नहीं, अपितु चौरासी लाख सम्पूर्ण भगवान् महावीर या जैनधर्म को कम याद करने में जीव योनियों के माथ में भी सक्रिय एकाकारता अनुभव पाता है यह सारी परिस्थिति जनों को प्रामविलोपन की करना चाहिए । जो कि उनके जीवन का प्रधान लक्ष्य है। ओर ले जा रही है। यहदियों की तरह जनों को भी क्या श्री जन संघ को युगानुरूप कार्य करना चाहिए अपनी ही जन्मभूमि भारत में क्या अन्यों के माथित रह
अाज भी श्री जैनपघ में संकड़ों त्यागी, तस्वी, कर जीवन यापन करना पड़ेगा ? क्योंकि जनतंत्र बहुमती
विद्वान, बहुश्रुत, प्रतिभासम्पन्न, पूज्य प्राचार्य आदि समाजों के लिए आशीर्वाद रूप है जबकि लघुमति वाले
मुनिवर है। पृथ्वी को पावन करने वाली त्यागी, समाजों के लिए श्राप रूप भी।
तपस्विनी, तथा विदुपी हजारों महान साध्वियां एव ये और ऐसी ही अनेक उपयोगी प्रेरणानों से थी सार्या रत्न हैं। जिनकी मन, वाणी एवं कर्म के द्वारा जैन संघ को अब अविलम्ब सावधान हो जाना चाहिए। प्रमत का प्रवाह निरन्तर बह रहा है। विलक्षण प्रतिभा कुछ समय पूर्व एक प्रति प्रतिष्ठित विद्वान्, विचारक, सम्पन्न, उदार, धर्म प्रेमी साथ ही समाज, राष्ट्र तथा साथ ही अत्यन्त धनवान्, श्वेताम्बर परम्परा एक अग्रणी विश्व का सक्रिय हितचिंतन करने वाला अनुपम गृहस्थ महानुभाव के साथ में वार्तालाप हो रहा था उस समय अर्थात् श्राद्ध रत्न एवं महान् थाविकारत्न भी है। ६-२-६५ उन्होने कहा कि-"जनों और साधु समाज की गतिविधि के 'जन' में पृष्ठ ६८ पर उपधान तप जैसा महान तप यही रही तो भविष्य में श्री जैन एवं समाज का भी विश्व करके माला पहनने वाली दो सगी बहने सात वर्ष की मे नाम शेष हो सकता है"। अत. संघ के हित चिन्तको को कुमारी राजुल तथा पांच वर्ष की कुमारी नीलम का जो अब गहरी निद्रा से सत्वर जग जाना चाहिए। यदि ब्लाक छपा है, वह सचमुच श्री जैन संघ का गौरव बढ़ाने जगने में नहीं पाएगा तो भयंकर विनाश सामने ही दिख वाला ही है। दोनों बालिकाओं का जीवन तो धन्य है ही, रहा है। भावनगर से प्रकाशित होने वाले 'जन' के ६-२- उममे भी आगे बढ़कर हज़ार गुना धन्य उन दोनों के ६५ के अंक में विद्वान तंत्री श्री भी जलते हृदय से श्री धर्मप्रारण माता पिता का है कि जिन्होंने महान त्याग के संघ को यही प्रेरणा दे रहे हैं कि 'कोइक प्राचार्य तो साथ बालिकाओं में ऐसे दित्य संस्कारों का सिंचन किया।