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अनेकान्त
श्री जैन संघ की मोर जब जब दृष्टि जाती है तब तब भारत ग्रादि कुछ प्रान्त ऐसे है कि जहाँ जैन साधु जीवन, ऐसे प्रसंगों को देख पढ़ और सुनकर हृदय हर्प से नाच उनकी वेश-भूपा, प्राचार, विचार, प्रादि से जनता कुछ उठता है। यह एक ही नहीं ऐसे तो अनेकों प्रेरणादायी परिचित है। बाकी भारत में ही ८० प्रतिशत स्थान या प्रसंग श्री जैन संघ में बगबर हुए है, होते हैं, और मागे जनता ऐसी है कि जहाँ जैन साधु जीवन तथा उनके भी होते ही रहेंगे। सचमुच त्याग, तप, सहिष्णुता, प्राचार विचार से जनता को कुछ परिचय भी नही है । सच्चरित्रता प्रादि सैकड़ो गुणों की दृष्टि से बड़भागी सुनने में आ रहा है कि सन् १८६३ के विश्व धर्म श्री जैन संघ माज भी विद्यमान है। किन्तु भविष्य की सम्मेलन चिकागो मे स्वयं युगाचार्य श्री विजयानन्द तथा संसार की उपयोगिता की दृष्टि से विचार करते सूरीश्वर जी महाराज श्री की जैनधर्म का प्रतिनिधित्व हए ऐसा लगता है कि थी जैन संघ अभी काल के बल करने की इच्छा थी किन्तु तत्कालीन समाज की परिको जैमा चाहिए वैसा पहचान नहीं सका है। बिखरे हुए स्थिति को देखते हुए वैसे पूज्य पुरुष भी ऐमा साहस न कोई कोई पहचानते हों तो उनका समाज में कोई उल्लेख- कर मके । और श्री वीरचन्द राघवजी गान्धी को अपने नीय महत्वपूर्ण स्थान ही नहीं है । या स्वय समाज ने वैसे प्रतिनिधि के रूप में भेजे थे। यद्यपि श्री बीरचन्द राघव नर रत्नों का कोई मूल्य प्रांका भी नहीं है। गृहस्थ जी ने विश्व धर्म सम्मेलन पर काफी अच्छा प्रभाव डाला समाज में तो वैसे कितने ही विचलण पुरुप है कि जो काल था । अनेक शहरों में उनके मारगभित भापणो ने जैनधर्म के बल को पहचानत हे किन्तु श्री जन सघ साधु साध्वो को उज्ज्वल बनाया था। परन्तु उतना तो कहना ही प्रधान राघ होने के कारण से गृहस्थों का समाज में कुछ पड़ता है कि श्री जनसंप ने यदि समय को पहचानकर चलता नहीं है। ऊपर जैसा कहा गया वैसा श्री जैन साधु एक युगाचार्य महापुरुप के मार्ग में सरलता कर दी होती तथा साध्वी संघ त्याग तपश्चर्या में विश्व में अन्य सब तो उसका परिणाम सम्पूर्ण श्री जैन मंघ के लिए कितना साधु समाजो से पूर्णतः अग्रणीय है किन्तु उनमें एकमात्र गौरवपूर्ण पाया होता ! सन् १८६३ के शुम्भ से ही एक युगानुरूप दृष्टि न होने के कारण त्यागी, तपस्वी, महान महान् क्रान्ति यदि अविच्छिन्न रूप से चली होती तो माज साधु साध्वी सप भी विश्व एव समाज को मार्ग दर्शन सन १९६५ तक वह कहाँ से कहाँ पहुँच गई होती? कराने में बिल्कुल निरुपयोगी रहा है। इधर-उधर बिखरी एक प्रभावशाली विद्वान् मुनिवर को मैं वर्षों से हैई उपयोगी जन शक्तियों का सगठन भी वे नहीं कर जानता हूँ कि जो धर्मप्रचार के निमित्त विदेशों में भी सके हैं। वहाँ नव निर्माण की तो बात ही कहां से सम्भव जाने को तैयार थे किन्तु धी सघ की परिस्थिति देखते हो । प्रत. आवश्यकता इस बात की है कि प्रादरणीय श्री हुए वे भी माहस न कर सके । अाज तो वे महात्मा काफी जैन साधु साध्वी जी महाराजो का त्याग, तप, प्रधान वृद्ध हो चुके है। इस उम्र में भी वे साहित्य का सर्जन जीवन के साथ ही उनमे कुछ युगानुरूप दृष्टि भी आवे। करत हा जा रहे है किन्तु उनक द्वारा जा पाशा तो यह रखते है कि उनमें कुछ महात्मा पूर्णतः
अन्य विद्वानों को (स्कॉलर) बनाने की जो सम्भावना थी युगानुरूप बनकर प्रन्यो को भी युगानुरूप दृष्टि देने वाले
वह न हो सकी कि जो ग्रन्य अर्थात् विद्वान् पाता ब्दियो हों। और इस तरह से शारत्रों में वर्णित युग प्रधान महा
तक विदेश की सस्कृति को भी प्रभावित करते रहते है। पुरुप के पवित्र पद को भी सुशोभित करे कि जैमी भविष्य
साथ ही साथ भगवान् महावीर एव जैन सस्कृति का नाम वाणी "युगप्रधानगडिका" मादि प्रथकारों ने की है।
उज्ज्वल होता रहता।
भूतकालीन इतिहास में महाराजा सम्प्रति ने जनधर्म अाज विश्व तो दूर रहा भारत में भी ऐमे कितने ही के प्रचार के लिए कितना महत्व का, विरल पुरुपार्थ बड़े-बड़े शहर भी है कि जहां जैन साधु जीवन एवं उनकी किया था? वह अनुभव करने जैसा है। जिनका प्रेरणावेग भूषा से भी जनता अपरिचित है। वहीं देहातो की दायी वर्णन अनेक ग्रन्थों में विस्तार से हुमा है। उस काल तो बात ही क्या ? केवल गुजरात, राजस्थान दक्षिण की भावश्यकता के अनुसार लाखों श्री जिन मन्दिरों की