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३८वे ईसाई तथा ७वे बौद्ध विश्व-सम्मेलनों को
श्री जैन संघ को प्रेरणा श्री कनकविजय जो, मामूरगंज, वाराणसी
वर्तमान जैन संघ की दुःखद स्थिति :
देखा जाय तो यह बात भी बिल्कुल ठीक है। विश्व का विश्व में अनेकों प्रकार के प्रचार कार्य चल रहे हैं। कोई भी बुद्धिमान् विचारक उससे इन्कार कर ही नहीं और चलते भी रहेंगे। उन सबकी ओर अपने को दृष्टि सकता । घर जला कर प्रकाश करना उचित है ही नहीं। देने की जरूरत नहीं है। किन्तु जो कोई प्रचार कार्य घर में रहने वालों को सुविधा हो इतने मात्र के लिए ही मानव समाज की उन्नति के लिए, और सो भी आध्या- तो प्रकाश करने में आता है। और वास्तव में यह त्मिक उन्नति के लिए वर्तमान विश्व में हो रहे हों उनकी बिल्कुल सीधी सादी स्पष्ट बात ही न्याय सगत है। भोर तो प्रवश्य ही अपने को कुछ दृष्टि करनी ही पड़ेगी। इतनी मूल बात को स्थिर करने के पश्चात् अब क्योंकि काल या परिस्थिति के बल अपने को मजबूरन अपनी उस बात पर पाते हैं कि ईसाई, बौद्ध, हिन्दू उसकी ओर दृष्टि करने के लिए बाध्य करे उसके पूर्व ही मूस्लिम प्रादि धर्म विश्व के मानव समाज की कुछ उपअपने समय की गति को पहले से ही पहचान ले और योगी सेवा करते है कि नहीं ? और यदि करते हैं । तो बुद्धिमत्ता से वर्तमान में ही उसका विचार कर ले वह उसके अनुसार जनों को भी ऐसा ही कोई उल्लेखनीय उचित गिना जायगा । एक दृष्टि यह भी है कि माध्या- महत्त्वपूर्ण सेवा का मार्ग अपनाना चाहिए की नहीं ? कि त्मिक उन्नति और भौतिक उन्नति दोनों एक दूसरे के जिसके द्वारा विश्व की अमूल्य संचित निधि समान श्री पूरक है विरोधिनी नहीं। और वास्तव में उन्नति को जैन संघ जैसे रत्न तुल्य महा संध का भी प्रकाश विश्व में उसके असली रूप में देखने मे प्रावे तो सत्य भी यही है। फले। यथा शक्य मानव समाज का विशाल रूप में मात्मस्वरूप की अन्तिम स्थिति में पहुँचे हुए महापुरुष श्री कल्याण तो हो ही, और उस तरह अपने अस्तित्व को भी तीर्थकर देवों के समीप प्रकृति या भवितव्यता भी दासी चरितार्थ करने के साथ विश्व की समग्र विचारधारा एवं बन कर रहती है। ३४ अतिशय तथा वाणी के ३५ दष्टि विन्दयों का समन्वय करने वाले जैनों का सक्रिय गुणों को व्यक्त करने के रूप में प्रकृति स्वयं परमविशुद्ध अनेकान्तवाद केवल जीवित ही नहीं अपितु विश्व को मात्म स्वरूप की अर्थात् श्री तीर्थकर देवों की सेवा ही महत्त्वपूर्ण उन्नति की प्रेरणा देता है जैसा विश्व को अनुकरती है। फलतः वह स्पष्ट है कि प्रात्म स्वरूप में पूर्णतः भव भी हो। स्थिति और उसका अलौकिक भौतिक प्रभाव दोनों एक ही हजारों वर्ष के इतिहास में थी जैन संघ ने सामाजिक सिक्के के दो पहलुओं के समान हैं।
आदि दृष्टियों से अनेकों बार उत्क्रांतियां एवं अपक्रान्तियां श्री जैन शिक्षा का मूल उद्देश्य यही है कि हर एक भी देखी। इतने सुदीर्घ कालीन अनुभवों के पश्चात् उन व्यक्ति को सर्वप्रथम अपना कल्याण करना चाहिए। अनुभवो का विश्लेषण करते हुए उसमें कुछ हुई गल्तियां, स्वात्म कल्याण के साथ पर उपकार हो जाय तो वह त्रुटियां प्रादि का परिमार्जन करके युगानुरूप कुछ नई इच्छनीय है। किन्तु परोपकार के लिए ही प्रवृत्ति करने दृष्टि एवं कार्य प्रणाली को अपना कर श्री जैन संघ को में पावे और परिणामतः स्वात्मा का ही भहित हो यह प्रवृत्ति के क्षेत्र में आना चाहिए। जैनधर्म के साथ वाले श्री जैन परम्परा को स्वीकार नहीं है, और वास्तव में धर्म ही नहीं, पीछे से शुरू हुए और मो भी विदेशी धर्मों