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________________ अर्थप्रकाशिका : प्रमेयरत्नमाला की द्वितीय टीका पं० गोपोलाल 'अमर' एम. ए. साहित्य शास्त्री प्राचार्य माणिक्यनन्दी का परीक्षामुख जैन न्याय का व्याख्याएँ हैं तथापि पण्डिताचार्य की व्याख्या ही विद्वानों एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसकी तीन टीकाएँ उपलब्ध हैं- को ग्राह्य है । तृतीय पद्य में प्रन्थकार कुछ नम्र होते हैं प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाला और प्रमेयरलालंकार। और कहते हैं कि सपूर्ण समार के प्रकाशक मूर्य के देदीप्यइसके प्रथम सूत्र की व्याख्या के रूप में एक लघु पुस्तिका मान रहते हए भी क्या लोग हाथ में छोटा-सा दीपक नहीं प्रमेयकण्ठिका भी उपलब्ध है। प्रमेयरत्नमाला की भी दो लेते, अवश्य लेते हैं। तब, अन्य टीकानों की भाति, पडिनाटीकाएँ हैं-न्यायमरिणदीपिका और अर्थप्रकाशिका। चार्य जी वाक्यों और वाक्यांशों प्रादि प्रथम पद को अर्थप्रकाशिका के लेखक पण्डिताचार्य अभिनवचारु- नतामरेत्यादि, श्रीमदित्यादि-मे लेते चलते है और उनकी कीति हैं। ये अठारहवीं शती ई० में कभी, श्रवणबेलगुल व्याख्या करते चलते हैं। परिच्छेदों की ममाप्ति पर उपके मठाधीश रहे हैं । वहां के मठ की यह पद्धति थी पोर संहारात्मक श्लोक आदि न लिखकर 'इति प्रथम. परिभी विद्यमान है कि उसके भट्टारक की गद्दी पर जो भी च्छेदः' जैमा संक्षिप्त वाक्य ही लिख देते है और तत्काल पासीन हो उसी का नाम पण्डिताचार्य चारुकीति हो जाता 'अथ द्वितीयः परिचन्द्रद' जैसे संक्षिप्त वाक्य से ही अग्रिम है। इस नाम के एक या अनेक विद्वानों द्वारा लिखे गये नौ परिसटेट पार पीसी दो परिमोटों के ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-न्यायमणिदीपिकाप्रकाश, मन्धिस्थल पर 'वद्धतां जिनशासनम' और 'भद्र भूयात् अर्थप्रकाशिका, प्रमेयरलालंकार, पार्वाभ्युदयकाव्य टीका आदि वाक्य लिखकर पूर्ण किये जाते है। ग्रन्थ के अन्त |सुबोधिका], चन्द्रप्रभचरितव्याख्यान [विद्वज्जनमनो- में कोई श्लोक, समाप्तिवाक्य या प्रन्थकार की प्रशस्ति वल्लभ], नेमिनिर्वाणकाव्य टीका, प्रादिपुराण, यशोधर आदि कुछ भी नहीं है। प्रारम्भ के तीन परिच्छेद, समच चरित मौर गीतवीतराग। प्रस्तुत पण्डिताचार्य जी ने ग्रन्थ के तीन चतुर्थांशों में समाप्त होते हैं और शेष तीन अपना परिचय स्वयं नहीं दिया है। यह खेद का विषय है परिच्छेद अपेक्षाकृत संक्षिप्त कर दिये है। कि इतने निकट प्रतीत-लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व में हुए व्याख्या के अन्तर्गत, विषय का विस्तार कम और विद्वान् का हम समूचा परिचय नहीं जुटा पा रहे है। यह स्पष्टीकरण अधिक हमा है। व्याख्येय ग्रंथ प्रमेयरत्नमाला भी खेद का विषय है कि श्रवणबेलुगुल के वर्तमान भट्टारक के प्रारम्भिक पद्यों की पूर्णतः साहित्यिक व्याख्या प्रस्तुत जी महोदय से अनेक बार नम्र निवेदन करने पर भी इस की गई है। यहां तक कि उनमें विद्यमान छन्दों और सम्बन्ध में कोई सहायता, कोई उत्तर भी मुझे प्राप्त नहीं अलंकारों का भी सलक्षण निर्देश किया गया है। स्थानहो सका। क्या ही अच्छा होता कि श्रवणबेलुगुल के भट्टा- स्थान पर 'तदुक्त' प्रादि द्वारा शतशः उदधरण दिये गये रकों की परम्परा इतिहासबद्ध की जाती और उससे है पर उनके मूल स्थलों का निर्देश कदाचित् ही हमा है। विद्वत्समाज लाभान्वित होता। नव्यन्याय की शैली में होने से एक अनोखापन तो हम ग्रंथ अर्थप्रकाशिका का प्राकार प्रमेयरत्नमाला से लगभग में अवश्य है परन्तु कुल मिलाकर न्यायमणिदीपिका की द्विगुणित और न्यायमणिदीपिका का दो तिहाई, अर्थात् भांति यह न तो अर्थबोधक ही बन सका है और न विषयतीन हजार चार सौ मनुष्टुप श्लोकों के बराबर है। ग्रन्थ विश्लेषक ही । इसका कारण यह प्रतीन होता है कि यह का प्रारम्भ भगवान् नेमिनाथ की वन्दना से किया गया पण्डिताचार्य जी की प्रारम्भिक कृति रही होगी। हम है। फिर कहा गया है कि प्रमेयरत्नमाला की हजारों व्याख्या के माध्यम से प्रमेयरत्नमाला को और प्रमेयरन
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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