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________________ वर्ष १८ किरण- ३ } प्रोम् अर्हम् अनेकान्त परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विशेषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६१, वि० सं० २०२२ अरहंत-स्तवनम् fuaa - मोह - तरुणी वित्थिष्णारणारण - सायरतिष्णा । हिय- रिग - विग्ध-वग्गा बहु-बाह-विणिग्गया प्रयला ॥ दलिय - मरण-प्यावा तिकाल-विसएहि तीहि ायणेहि । विट्ठ-सयल ट्ठ- सारा सदद्ध-तिउरा मुणि-व्वइरणो ॥ ति-रयरण-तिसूलधारिय मोहंघासुर-कबंध-विद-हरा । सिद्ध-सयलप्प वा श्ररहंता तुम्गय-कयंता ॥ { अगस्त सन् १९६५ समभावार्थ वीरसेन अर्थ- जिन्होंने मोहरूपी वृक्ष को जला दिया है, जो विस्तीर्ण प्रज्ञानरूपी समुद्र से उत्तीर्ण हो गए हैं, जिन्होंने अपने विघ्नों के समूह को नष्ट कर दिया है, जो अनेक प्रकार को वाधाओंों से रहित हैं, जो प्रचल हैं, जिन्होंने कामदेव के प्रताप को दलित कर दिया है, जिन्होंने तीनों कालों को विषय करने रूप तीन नेत्रों से सकल पदार्थों के सार को देख लिया है, जिन्होंने त्रिपुर---मोह, राग और द्वेष को अच्छी तरह से भस्म कर दिया है, जो मुनि व्रती अर्थात् दिगम्बर अथवा मुनियों के पति — ईश्वर हैं, जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीन रत्न रूपी त्रिशूल को धारण करके मोहरूपी अन्धकासुर के कवन्ध वृन्द का हरण कर लिया है। जिन्होंने सम्पूर्ण ग्रात्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया है और जिन्होंने दुर्नय का अन्त कर दिया है, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी होते हैं, उन्हें नमस्कार है ।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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