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________________ अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर तथा श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र पं० नेमचन्द धन्नूसा जैन, देउलगांव अप्रैल के अनेकान्त के अंक में 'श्रापुर, निर्वाणभक्ति कथानको के बारे में मेरा अनुमान है कि जितनी भी पौर कुन्दकुन्द' यह लेख डा. विद्याधर जी ने लिखकर इस क्षेत्र की बाबत कथा उपलब्ध हैं उनमें एक भी पर्याप्त निर्वाणभक्ति के समय और कर्तृत्व पर तथा शिलालेख नहीं हैं। कई कथाएँ सिर्फ इस क्षेत्र का महात्म्प सुनकर मंग्रह से उद्धृत श्रीपुर पर जो प्रकाश डाला उसके लिए अन्य स्थान से ही लिखी गयी हैं। कई कथाएँ एक-दूसरे मैं उनका आभारी हूँ। का अनुमरण करके या प्रभाव में प्राकर के लिखी गई फरवरी के अनेकान्त में मैंने जो लेख दिया था, उस हैं। सो भी उन कथामों का पूरा प्रादर करते हुए उनके का उद्देश्य था-अं० पा० श्रीपुर (शिरपुर) क्षेत्र के समय आधार पर 'समय और स्थान' पर प्रकाश डाला है। तथा स्थान पर प्रकाश डालना । लेकिन उस पर अभिप्राय हमारा कथन विरुद्ध बताने के लिए जिनप्रभ सूरि की देते हुए विद्याधरजी लिखते है-'श्रीपुर मे खरदूषण कथा का उल्लेख किया है। उस कथा में ही वर्णन पाया राजा के समय में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा हुई यह है किबात पुराने कथा लेखकों से एकदम विरुद्ध जान पडती (१) पोखर या कूप में से जो प्रतिमा निकली वह है। आदि। भावी तीर्थंकर पार्श्वनाथ की थी। माला के माध्यम से परीक्षामुख को अच्छी तरह हृदयंगम श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रस्य वन्दित्वा पदपङ्कजम् । करके ही उन्होंने प्रमेयरत्नालंकार लिखा होगा तभी तो प्रमेयरत्नमालार्थ. संक्षेपेणः विरच्यते ॥१॥ उममें इनकी प्रखर विद्वत्ता सामने आई है। प्रमेयरत्नमालाया व्याख्यास्सन्ति सहस्रशः । अर्थप्रकाशिका अभी तक-मुद्रित नहीं हुई है। इसकी तथापि पण्डिताचार्यकृतिािंव कोविदः ।।२।। एक हस्तलिखित प्रति मेरे पास है। यह श्री जैन सिद्धात भानी देदीप्यमाने ऽपि सर्वलोकप्रकाशके। भवन, पारा की संपत्ति है और वहां इसका वेष्टन नं. न गृह्यते किं भुवने जनेन करदीपिका ॥३॥ म्व २२१ है। इस प्रति में ८॥"+६॥" प्राकार के २४६॥ और यह देखिये अंतिम ग्रंशपत्र हैं और प्रत्येक पत्र में २२ पंक्तियां तथा प्रति पंक्ति "श्रीमत्सुरासुर वृन्दवन्दितपादपाथोज श्रीमन्नेमीश्वर लगभग २० प्रक्षर है । कागज मोटा, चिकना और काफी समुत्पत्ति पवित्री कृतगौतमगोत्रसमुद्भूताहतविज श्री ब्रह्माअच्छी स्थिति में है। इसके लिपिकार हैं श्री विद्यार्थी सूरि शास्त्रितनूज श्रीमद्दोलि जिनदास शास्त्रिणामन्ते विजयचन्द्र जैन क्षत्रिय । ये, गौतम-गोत्रीय प्राहंत ब्राह्मण वासिनामेरूगिरिगोत्रोत्पन्न वि. विजयचन्द्राभिषेन जैनश्री ब्रह्मदेव मूरि शास्त्री के सुपुत्र श्री बाहुबली जिनदास क्षत्रियेणालेखीति ॥ भद्रं भूयात् ॥ श्री ।।.॥श्री॥" शास्त्री के शिष्य थे। श्री विजयचन्द्र ने लिपि की तिथि जैसा कि कहा जा चुका है, परिच्छेदों के अंत में नहीं दी है परन्तु वह पचास वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं 'इति परिच्छेदः' के अतिरिक्त कोई पुष्पिका वाक्य प्रादि प्रनीन होती। ये अधिक प्रौढ़ भी नहीं रहे दिखते क्योंकि नहीं है। उन्होंने लिपि में बहुत-सी अशुद्धियां की हैं। इस प्रति का इसमें सन्देह नहीं कि अर्थप्रकाशिका नव्यन्याय की प्रारम्भिक अंश यह रहा है एक महत्वपूर्ण कृति है। यह प्रभी अप्रकाशित है पर "श्री वीतरागाय नमः ॥ प्रमेयरत्नमाला ॥ अर्थ प्रकाशित होते ही विद्वन्मण्डल को इससे कुछ नवीन प्रकाशिका ॥ सामग्री अवश्य मिलेगी।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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