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बोध प्राभृत के संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द
साध्वी श्री मंजुला, शिक्षा विभाग अग्रणी
प्राचार्य कुन्दकुन्द, दिगम्बर परम्परा में एक विशिष्ट पड़ा जो धीरे-धीरे कुन्दकुन्द हो गया। प्रापका तीमग और विख्यात प्राचार्य हो गए हैं। दिगम्बर परम्परा में नाम एलाचार्य भी प्रसिद्ध है। जो तिरुकुरल के रचयिता जो स्थान उन्हें प्राप्त है वह किसी दूसरे ग्रन्थकार को का है। इसी नाम और काल साम्य से तिरुकुरल को नहीं। भगवान महावीर और गौतम के बाद तीसरा कुन्दकुन्द की रचना संभावित रूप में माना गया है। हो इन्हीं का नाम स्तवनीय के रूप में प्राता है।
सकता है तिरुकुरल जनाचार्य कुन्दकुन्द की रचना हो "मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। लेकिन उनके अभी तक के उपलब्ध ग्रन्थों में तिरुकुरल मंगलं कुन्दकुन्दार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगल ।" का नाम नहीं पाता है। कई कहते है कुन्दकुन्दाचार्य ने
प्राप दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य होते हुए भी ८४ पाहुडो की रचना की उनमें से अब नौ ही प्राप्त है श्वेताम्बरत्व और दिगम्बरत्व के भेद भावों में कभी नहीं लेकिन १. दर्शन प्राभृत, २. चारित्र प्राभूत, ३. सूत्र उलझे । सदा तटस्थभाव से सत्य को निष्पक्ष अभिव्यक्ति प्राभूत, ४. बोध प्राभृत, ५. भाव प्राभूत, ६. मोक्ष प्राभृत, देना चाहते थे । दक्षिण के शिलालेखों में प्रापका नाम ७. समयमार, ८. प्रवचनसार, ६. पचास्तिकाय, कोंडकुन्द पाया जाता है। जिससे उनके तमिल देशवासी १०. नियमसार । इन नौ-दस के अतिरिक्त रयणसार, होने का अनुमान लगाया जा सकता है। श्रुतावतार के दस भक्ति, अष्ट प्राभूत, वारस अणुवेक्खा भादि और भी कर्ता ने उन्हें कोंडकुन्डपुर वासी कहा है। मद्रास कई ग्रन्थ उपलब्ध हैं। आपकी सभी रचनाएँ प्राकृत भाषा
राज्य में गुंतकल के समीप कुन्डकुन्डी नामक ग्राम है। में है। वहाँ की एक गुफा में कुछ जैन मूर्तियां स्थापित हैं। आपके समय के बारे में विद्वानों मे कई मतभेद हैं । प्रतीत होता है कि यही कुन्दकुन्दाचार्य का मूल निवास मापके ग्रन्थ में आपका कोई परिचय नहीं मिलता। स्थान व तपस्या भूमि रहा होगा। कइयों का अभिमत है केवल एक बारस-अणुवेक्खा का एक ही प्रति के अन्त में "द्रविड देश के कोंडकुन्ड ग्राम के थे कुन्दकुन्दाचार्य । और उसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु के शिष्य हो गए हैं । उसी कोण्डकुण्ड के आधार पर इनका कोण्डकुण्ड नाम इसके अनुसार कवि का कालमान ई० ५, तीसरी, चौथी ही जानें । मुझे विश्वास है चाहे वह तथ्य हो या प्रतथ्य देंगे अथवा इसे अनुचित समझे तो जो उचित हो उसे हो, अब समाधि मरण के उपायों का अविलम्ब अवलम्बन उपयोग में लावें। अब केवल सन्तोष कराने से मेरा तो करना श्रेयस्कर है। इसका उपाय पेय पदार्थ है। पाहार कल्याण दुर्लभ होगा। को छोड़कर स्निग्ध पान करना बहुत ही उपयोगी होगा।
आपका शुभचिन्तक दूध प्राधा सेर और दो अनार का रस (जो पाव सेर से
गणेश वर्णी अधिक न हो) माठ दिन इसका प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूज्य बाबा जी ने सदैव यदि यह उपयोग ठीक हो, समाधि मरण के अनुकूल पड़ कठोर प्रात्मालोचन द्वारा अपने जीवन को संवारा, उसे जावे तो अगाड़ी सात छटाक दूध और प्राधा पाव अनार गति दी, तथा एक सुनियोजित समाधि संकल्प के माध्यम के रस का उपयोग करना चाहिए। और इस उपयोग में से उन्होंने अपना अवसान काल अद्भुत शान्ति और प्रात्मसफल हो तो पागामी काल में तक इत्यादि का प्रयोग चिंतन के मानन्द से अभिभूत करके समता पूर्वक यह करना चाहिए । रोमी गाणा है कि माधर्मी भाई सम्मति शरीर त्याग किया।