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प्रोम् महम्
अनेकान्त
परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम्। सकलनयविलसितानां विरोषमपनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
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वर्ष १८ किरण-४
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मंवत् २४६२, वि०म० २०२२
4 अक्टूबर । सन् १९६५
श्रीसिद्ध स्तवनम् रिणहय विविहट्ठ-कम्मा तिहुयण-सिर-सेहरा बिहुव-दुक्खा। सह-सायर-मझ-गया गिरजरगा गिच्च प्र-गुरगा ॥१॥ अरणवज्जा कय-कज्जा सव्वावयहिं दिट्ठ-सव्वट्ठा । वज्ज-सिलत्थम्भग्गय पडिमं वाभेज्ज-संठारणा ॥२॥ माणुस संठारणा विहु सव्वावयवेहि णो गुरणेहि समा। सव्विदियारण विसयं जमेग-देसे विजाणंति ॥३॥
अर्थ-जिन्होंने नाना भदरूप पाठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखरस्वरूप हैं, सुखरूपी मंसार में निमग्न हैं, निरंजन है, नित्य हैं, मम्यक्त्वादि पाठ गुणों से युक्त हैं, अनवद्य हैं-निर्दोष है, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने मर्वाङ्ग में प्रथवा समस्त पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वशिला-निर्मित प्रभग्न प्रतिमा के समान प्रभेच प्राकार से युक्त हैं, जो पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुपों के समान नहीं है, क्योकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियों के विपयों को भिन्न-भिन्न देश में जानता है, परन्तु जो प्रति प्रदेश में सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध है, उन्हें मेरा नमस्कार हो।