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अनेकान्त
बिखरे हुए केशों सहित पाह्वनीय अग्नि को अपने में ककवे वृषभो युक्त पासीद्, धारण करके ब्रह्मावर्त देश से प्रवजित हुए। वे जड़, मूक,
प्रवावचीत् सारपिरस्य केशी। अन्ध, बधिर, पिशाचोन्माद युक्त जैसे प्रवधूत वेष में पर्युक्तस्य द्रवतः सहानस, लोगों के बुलाने पर भी मौन-वृत्ति धारण किये हुए शान्त
ऋष्छन्तिष्मा निष्पवो मुद्गलानीम् ॥ रहते थे..."सब पोर लटकते हुए अपने कुटिल, जटिल,
जिस सूक्त में यह ऋचा पाई है, उसकी प्रस्तावना कपिश केशों के भार सहित अवधूत और मलिन शरीर के ।
में निरुक्त के जो 'मदगलस्य दप्ता गावः' आदि श्लोक साथ वे ऐसे दिखलाई देते थे, जैसे उन्हें कोई भूत लगा हो।
उद्धृत किये गये हैं, उनके अनुसार मुद्गल ऋषि की गायों ऋग्वेद के तथोक्त, केशीसूक्त तथा श्रीमद्भागवत में
को चोर ले गये थे। उन्हें लौटाने के लिए ऋषि ने केशी वणित श्री ऋषभदेव के चरित्र के तुलनात्मक अध्ययन से
वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचनमात्र से वे प्रतीत होता है कि वैदिक केशी सूक्त को ही श्रीमद्भागवत्
गौएँ मागे को न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ी। में पल्लवित भाष्यरस में प्रस्तुत कर दिया गया है। दोनों में ही वातरसना अथवा गगन-परिधान वृत्ति केश धारण.
प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने पहले
तो वृषभ तथा केशी का वाच्यार्थ पृथक बतलाया है। कपिश वर्ण, मल धारण, मौन और उन्मादभाव समान
किन्तु फिर उन्होंने प्रकारान्तर से कहा हैरूप से वर्णित हैं।
"अथवा अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टवेषो भगवान ऋषभदेव के कुटिल केशों का अंकन जैन मूर्तिकला की एक प्राचीनतम परम्परा है जो आज तक
वृषभोऽवावचीत् भ्रशमशब्दयत् ।" इत्यादि
सायण के इस अर्थ को तथा निरुक्त के उस कथा बराबर प्रक्षुण्णरूप से चली आ रही है। यथार्थत. समस्त
प्रसंग को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत गाथा का निम्न अर्थ तीर्थकरों में केवल ऋषभदेव की ही मूर्तियों के शिर पर कुटिल केशों का रूप दिखलाया जाता है और वही उनका
प्रतीत होता है।
'मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान नेता) केशी वृषभ प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है। ऋषभनाथ के
जो शत्रुओं का विनाश करने के लिए नियुक्त थे। उनकी केशरियानाथ नामान्तर में भी यही रहस्य निहित मालूम
वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की देता है। केसर-केश और जटा-तीनों शब्द एक ही
गएँ (इन्द्रियाँ) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ अर्थ के वाचक प्रतीत होते हैं। केसरियानाथ पर जो
दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौदगलानी (मुद्गल की केसर चढ़ाने की विशेष मान्यता प्रचलित है वह नाम स्वात्मवत्ति) की ओर लौट पड़ीं।" साम्य के कारण उत्पन्न हुई प्रतीत होती है। इस प्रकार
तात्पर्य यह कि ऋषि की जो इन्द्रियों पराङ्मुख थीं ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि एवं श्रीमद्भागवत ।
वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वषभ के धर्मोपदेश को के ऋषभ तीर्थकर तथा उनका निम्रन्थ सम्प्रदाय एक ही
सुनकर अन्तर्मुखी हो गई। सिद्ध होते हैं।
वर्षभदेव और वैदिक अग्नि देव ऋग्वेद की निम्नांकित ऋचा से केशी और वृषभ अग्निदेव की स्तुति में वैदिक सूत्रों में जिन विशेषणों अथवा ऋषभ के एकत्व का ही समर्थन होता है। का प्रयोग किया गया है। उनके अध्ययन से स्पष्ट है कि
यह अग्निदेव भौतिक अग्नि न होकर आदि प्रजापति १. राजस्थान के उदयपुर जिले का एक तीर्थ 'केशरिया यह माग्नदव भ तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध है, जो दिगम्बरः श्वेताम्बर वृषभदव हा
वृषभदेव ही हैं-जातवेवस [जन्मत: ज्ञान-सम्पन्न ] एवं वैष्णव मादि सम्प्रदाय वालों को समान रूप से रत्न परक्त [दर्शन, ज्ञान, चरित्र रूप रत्नों को धारण मान्य एवं पूजनीय है तथा जिसमें भ. ऋषभदेव की ३. देखो, डा. हीरालाल जैन का "पादितीर्थकर की
एक अत्यन्त प्राचीन सातिशय मूर्ति प्रतिष्ठित है। प्राचीनता तथा उनके धर्म की विशेषता" शीर्षक लेख २. ऋग्वेद १०,१०२६।
(अहिंसावाणी वर्ष ७ अंक १, २, १९५७)।