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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ
थे । तथागत ने श्रमणों को प्रचार प्रणाली में व्यवस्था लेते हुए एक बार कहा पार नाहं भवे मंघाटिकस्म भिक्खवे संपादि परिणमतेन सामान्यं वदामि धवेलकम प्रचेलकस्म अचेलकमन रजो जल्लिकस्स रजो जनिमनंन जटिल कस्स जटाधारणमसेन साम कामि ।'
अर्थात् हे भिक्षुग्रो, मैं संघाटिकके संघाटी धारण करने मात्र से श्रामण्य नही कहता, अचेलक के श्रचेलकत्व मात्र से, रजोजब्लिक के रजोजल्लिक मात्र से और जटनिक के जटाधारण मात्र से भी श्रामण्य नही कहता ।
भारत के प्राचीनतम साहित्य के अध्ययन मे स्पष्ट हैं कि उक्त वातराशना तथा रजो जल्लिक साधुग्रो की परम्परा बहुत प्राचीन परम्परा है, ऋग्वेद में
उस है।
मुनयो वातरशना पिशंगा वसते मला । वातस्यानु धाजि यन्ति यद्देवासी श्रविसत । उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम्।
शरीरे दस्माकं सु मर्तासी अभिष्यथ अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरसना मुनि भल धारण करते है जिससे वे पिंगल वर्ग दमाई देते है। जब वे बाकी गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते है, अपने तप की महिमा से दे दीप्यमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते है ।
यात रशना मुनि प्रकट करते है-ममस्त लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृद्धि मे उन्मतवत् 'परमा नन्द सम्पन्न' वायुभाव 'अंदशरीरी ध्यानवृत्ति' को प्राप्त होते है। तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो हमारे सच्चे सभ्यन्तरस्वरूप को नहीं।
वानरशना मुनियों के वर्णन के प्रारम्भ में ऋग्वेद में ही 'कंशी' की निम्नाकित स्तुति की गई है, जो हम तथ्य की अभिव्यंजिका है कि केशी' वातरशना मुनियों के प्रधान थे, केपी की वह स्तुति निम्न प्रकार ३
'केश्यग्नि केशी विषं केशी विर्भात रोदसी । केशी विश्वं स्वशे] केशवं ज्योतिते ।।'
१. मज्झिमनिकाय ४०,
२. वेद १०, ११६.२-१.
३.
वेद १०, १३६. १।
तब
व
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केशी अग्नि, जल, स्वर्ग तथा पृथ्वी को धारण करना है। केशी समस्त विश्व के तत्वों का दर्शन कराता है और । केणी ही प्रकाशमान 'ज्ञान' ज्योति कहलाता है, अर्थात् केवलज्ञानी कहलाता है।
ऋग्वेद के इन केशी तथा वातरशना मुनियों की सापनाथों की श्री मदभागवत में उल्लिखित बातरशना श्रमपि और उनके अधिनायक ऋषभ तथा उनकी साधनाओं की तुलना भारतीय चाध्यात्मिक साधना और उसके प्रवर्तक के निगूढ प्राक् ऐतिहासिक प्राध्याय को बड़ी सुन्दरता के साथ प्रकाश में लाती है ।
ऊपर के उल्लेखों से स्पष्ट है कि ऋग्वेद के वातरशना मुनि और श्री मद्भागवत के "वातरशना श्रमणऋषि " एक ही परम्परा अथवा सम्प्रदाय के वाचक हैं, सामान्यत hat का अर्थ केशधारी होता है, परन्तु मायणाचार्य ने 'केश स्थानीय रश्मियों को पार करने वाला' किया है और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है, परन्तु प्रस्तुत सूक्त में जिन वातरगना साधों को मावनाओं का उस है, उनसे इस अर्थ की कोई संगति नहीं बैठती। केशी स्पष्टतः वातरक्षना मुनियों के अभिनायक ही हो सकते है जिनकी साधना में मल धारण, मौन-वृत्ति और उन्मादभाव (परमानन्द दशा) का विशेष उल्लेख है। मूक्त में भागे उन्हें ही
"मनिर्देवस्य देवस्य सकृत्याय मला हितः।"
देवदेवों के मुनि उपकारी तथा हितकारी गया बत लाया गया है। वातरशना शब्द में और मन रूपी वमन पारण करने में उनकी नाम्य वृद्धि का भी संकेत है।
श्रीमद्भागवत में ऋषभ का वर्णन करते हुए लिखा है'उर्वरित शरीरमाण-परिग्रह उन्मन व गगनपरि धान प्रकीर्णकेश पात्मत्यारोपित नीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवव्राज | जडान्ध-मूक-बधिर पिशाचोन्मादकवत् प्रवधूतपोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहीन मौनव्रतः तृणी बभूव परागवलम्बमान-कुटिल जटिल कपिश केशभूरिभारोऽवधृत मलिन निज शरीरेण ग्रह गृहीत हवायुग्यत"
अर्थात् ऋषभ भगवान के शरीर मात्र का परिग्रह शेप रह गया था, वे उन्मत्त के समान दिगम्बर वेषधारी,