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________________ १९५ अनेकान्त की भांति ही प्रनित्य जगत को पालम्बन, जैन मन्दिर, चाहते हैं । उनका विश्वास है कि भगवान की वाणी का जैन तीर्थ क्षेत्र, जैन मूत्ति और जैन साधु को उद्दीपन, श्रवण करने मात्र से वह उपलब्ध हो सकती है। । प्राचार्य घृत्यादिको को संचारी तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह के सोमदेव शिव-सुख देने वाली शान्ति चाहते है। वही भव प्रभाव अर्थात् सर्व समत्त्व को अनुभाव माना है। दुख रूपी अग्नि पर घनामृत की वर्षा कर सकती है । वह शान्ति का अर्थ है निराकुलता। प्राकुलता राग से शान्ति भगवान शान्तिनाथ प्रदान कर सकते हैं। उत्पन्न होती है। रत होना राग है। इसी को प्रासक्ति "भव दुःखानलाशान्तिमितवर्षजनित जनशान्तिः । कहते हैं। प्रासक्ति ही अशान्ति का मूल कारण है। शिवशर्मासवशान्तिः शान्तिकरः स्ताज्जिनः शान्तिः५॥" सांसारिक द्रव्यों का अर्जन और उपभोग बुरा नहीं है। जैन ग्रन्थों के अन्तिम मंगलाचरण प्रायः शान्ति की किन्तु उसमें प्रासक्त होना ही दुखदायी है। प्राचार्य कुन्द- याचना में ही समाप्त होते हैं। शान्ति भी केवल अपने कुन्द ने कहा है कि जैसे अरति भाव से पी गई मदिरा लिए नही, संघ, प्राचार्य, साधु, धार्मिक जन और राष्ट्र के नशा उत्पन्न नहीं करती, वैसे ही अनाशक्त भाव से द्रव्यों लिए भी। प्राचार्य पूज्यपाद का "संपूजकानां प्रतिपालकानां का उपभोग कर्मों का बन्ध नहीं करता१ । कर्मों का बन्ध यतीन्द्र सामान्य तपोधनानाम् । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य अशान्ति ही है। प्राचार्य पूज्यपाद का कथन है कि यह राज्ञःकरोत् शान्ति भगवान जिनेन्द्रः६।" इसी का द्योतक बन्ध जिनेन्द्र के चरणो की स्तुति से स्वत. उपशम हो है। पं० श्री मेधावी के धर्मसंग्रह श्रावकाचार का मंगलाजाता है जैसे कि मन्त्रो के उच्चारण से सपं का दुर्जय चरण भी ऐमा ही है। उन्होंने भी राजा प्रजा और मुनि विष शान्त हो जाता है २ जैसे ग्रीष्म के प्रखर मूर्य से सतप्त सभी के लिए शान्ति चाही हे७ ।। हए जीव को जल और छाया मे शान्ति मिलती है, वस शान्ति दो प्रकार की होती है-शाश्वत और क्षणिक । ही ससार के दुखो से बेचन प्राणी भगवान के चरण पहली का सम्बन्ध मोक्ष से है और दूसरी का भौतिक कमलों में शान्ति पाता है३ । मुनि शोभन शाश्वत शान्ति - " ४. शान्ति वस्तनुतान्मिथोऽनुगमनाद्यन्न गमाद्यैर्नय, १. जहमज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। रक्षोभ जन हे तुलां जिनमदोदीर्णाग जालं कृतम् । दव्वुवभोगे, अरदो णाणी वि ण वज्झदि तहेव ॥ तत्पूज्यजंगता जिनः प्रवचन द्रप्यत्कुवाद्यावलो, प्राचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, श्री पाटनी दि. जैन रक्षोभजन हेतुलांछितमदो दीर्णाग जालकृतम् ॥ ग्रंथमाला, मारोठ, मारवाड़, १९५३ ई०, १९६वी मुनिशोभन, चतुर्विशति जिनस्तुतिः, काव्यमाला, गाथा, पृ० २६६ । सप्तमगुच्छक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, तीसरा श्लोक, क्रुद्धाशीविपदष्ट दुर्जयविपज्वालावली विक्रमो. पृ० १३३ । विद्याभपज मत्रतोय हवनर्याति प्रशान्ति यथा। 5. K. K. Handiqui, yarastilak and तद्वत्ते चरग्गाम्बुजयुग स्तोत्रोन्मुखाना नृणाम् । Indian culture, Sholapur, 1949, विघ्ना कायविनाशकाश्च सहसा शाम्यन्त्यहो विस्मयः।। P.311. प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृतशान्तिभक्ति, 'दशक्तिः ', ६. दशभक्त्यादि संग्रह. १४वा श्लोक, पृ० १८१ । शोलापुर, १९२१ ई०, दूसरा श्लोक, पृ० ३३५।। ७. शान्तिस्याज्जिनशासनस्य सुखदा शान्तिनृपाणां सदा, ३. न स्नेहाच्छरण प्रयान्ति भगवन्पादद्वय ते प्रजाः, सुप्रजाशांतयोभरभृतां शान्तिमुनीनां सदा। हेतुस्तत्र विचित्रदु.खनिचयः संसारघोराणवः । श्रोतृणां कविताकृतां प्रवचनव्याख्यातकाणां पुनः, अत्यन्त स्फुरदुग्ररश्मि निकग्व्याकीणं भूमडलो, शांति शांतिरथाग्नि जीवनमुचः श्रीमजनस्यापि च ॥ प्रेप्मः कारयतीन्दु पादसलिलच्छायानुरागं रविः । पडित श्री मेधावी, धर्ममग्रहश्रावकाचार, अन्तिमप्राचार्य पूज्यपाद, सस्कृतशान्तिभक्ति, दशभवत्यादि प्रशस्ति, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १९५० ई०, ३५वाँ संग्रह, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, पहला श्लोक, श्लोक, पृ० २५। पृष्ठ १७४।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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