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अनेकान्त
किया। थोड़े से अंको और अक्षरों ने अनन्त ज्ञान को वाला अजमेर म्यूजियमवाला लेख है। उसके बाद अशोक समेट रखने में गजब का काम किया है। मनुष्य की के अनेक शिलालेख और खारवेल मादि के लेख प्राप्त है। प्रत्येक ध्वनि को अक्षरों के सांचे में ढाल देने का यह पर कोई ग्रंथ उस समय का लिखा हुमा प्रभी भारत में महान् प्रयत्न, वास्तव में ही अद्भुत है।
प्राप्त नहीं हा फिर भी 'राय पसेणी' सूत्र में उल्लिखित जैन धर्म, भारत का एक प्राचीन धर्म है उस धर्म के देवविमान पुस्तक का जो विविरण प्राप्त है वह बहुत प्रवर्तक सभी तीर्थकर इसा भारत में जन्मे। उनकी साधना कुछ ताडपत्रीय प्रतियों की लेखनपद्धति से मिलता जुलता उपदेश, कार्य एवं निर्वाणक्षेत्र भी भारत है । जैनधर्म के है। यद्यपि ताडपत्रीय प्रतियां उतने प्राचीन समय की अब अनुसार बहुत प्राचीन काल में, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हमें प्राप्त नहीं है। जैनागम फुटकर रूप में कुछ पहले हुए। उस अवसपिणि काल के सबसे पहले राजा, भिक्षु लिखे गये हों तो दूसरी बात है पर सामूहिक रूप में उनके और केवल ज्ञानी हुए, तथा सभी प्रकार की विद्याओं और लिपिबद्ध होने का समय वीरात् ९८० है। यद्यपि उस कलामों के भी वे सबसे पहले प्राविष्कारक थे । पुरुषों का समय की भी लिखी हई कोई प्रति प्राज उपलब्ध नहीं है । ७२ और स्त्रियों की ६४ कलाएं उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों मालूम होता है कि उस समय तक पुस्तकों को अधिक से और लोगों को सिखाई । उनके बड़े पुत्र भरत के नाम से अधिक समय तक टिकाये रखने की कला का उतना विकास इस देश का नाम भारत पड़ा। वे सबसे पहले चक्रवर्ती नहीं हुपा था। फलतः जो प्रतियां लिखी गई वे कुछ सम्राट थे। भगवान ऋषभदेव की २ पुत्रियाँ थीं-ब्रह्मी शताब्दियों में ही नष्ट हो गई। उस अनुभव से लाभ
और सुन्दरी । जिनको उन्होंने प्रक्षर और अंकविद्या उठाकर ताड़पत्र कहां के सबसे अच्छे और लिखने के सिखाई। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को लिपि विद्या सिखाई अत: उपयुक्त और टिकाऊ हैं और किस तरह उनकी घुटाइ के जबी के नाम से 'ब्राह्मी लिपि' प्रसिद्ध हुई। उसके बाद लिखने से कैसे सुन्दर लेखन३ हो सकता है और वे अधिक समय समय पर अन्य कई लिपियाँ प्रकाश में प्राई। अब समय तक टिक सकते हैं । इसी तरह स्याही भी किस तरह से ॥ हजार वर्ष पहले भगवान महावीर के समय में की बनाने से चमकीली और टिकाऊ बन सकती है इत्यादि १७ प्रकार की लिपिया प्रसिद्ध होने का जैनागमों में उल्लेख बातों पर विचार किया गया होगा। इसके फलस्वरूप इन है । पुस्तके किस तरह लिखी जाती थीं उनका भी जैना- प्राचीन प्रतियो की अपेक्षा पीछेवाली प्रतियां अधिक स्थायी गमों में उल्लेख है।
रह सकी । अबसे १७ वर्ष पूर्व जब हम जेसलमेर के भडागे प्राचीनकाल में मनुष्य की स्मृति बहुत तेज थी इसलिए का अवलोकन करने गये थे तो उस समय बहुत सी जरमौखिक परम्परा से ही शिक्षादि व्यवहार होते रहे है। जरित और टूटी हुई प्रतियों के ऐसे बहुत से टुकड़े हमने लिखने का काम बहुत थोड़ा ही पड़ता होगा और जो कुछ देखे थे जिनकी लिपि (वीं से १०वीं शताब्दी की थी। लिखा जाता था, वह भी थोड़े समय टिकनेवाली वस्तुओं इससे पहले तो न मालुम ऐसी प्राचीन प्रतियों के कितने पर । इसी से प्राचीन लिखित ग्रंथ प्रादि अब प्राप्त नहीं टकर्ड इधर उधर नष्ट किये जा चुके होंगे। दूसरी बार है। मोहनजोदड़े मादि स्थानों में प्राप्त पुरातत्त्व पर जो जाने पर हमे पहले के देखे हुए वे छोटे छोटे टुकड़े देखने लिपि खदी हुई है उसको अभी ठीक से पढ़कर समझी नहीं को नही मिले और कई प्रतियां प्रादि भी पहली और दूसरी जा सकी। ब्राह्मी लिपि के उपलब्ध प्राचीन शिलालेखो में बार जाने पर देखी हई अब अन्यत्र चली गई हैं। खैर ! शायद सबसे पुराना वीर भगवान के ८४ वर्ष के उल्लेख अब तो जेसलमेर भंडार में "विशेषावश्यक भाष्य' की ताड
पत्रीय प्रति ही सबसे पुरानी है जिसका समय मुनि पुण्य१. देखो नागरी प्रचारिणी, ५७, अक ४ में प्रकाशित
शित विजयजी ने १०वीं शताब्दी के करीब का माना है। १२ मेरा लेख, २. 'अवन्तिका' में प्रकाशित मेरा लेख पुस्तक शब्द को ३. दे० पु० मुनि पूण्यविजयजी की भारतीय श्रमण प्राचीनता।
संस्कृति अने. लेखन कला।