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राष्ट्रीय संग्रहालय में राजस्थान से प्राप्त तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की प्रस्तर प्रतिमा
व्रजेन्द्रनाथ शर्मा, एम० ए०
राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में भारतवर्ष के विभिन्न तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की थी भागों से प्राप्त अनेकों जैन प्रतिमाएं संग्रहीत है। इसमें (देखे पूरनचन्द नाहर, जन अभिलेख, ३ संख्या २११४ । चालुक्य, गहड़वाल तथा पाल-कालीन और पल्लव, चोल सुपार्श्वनाथ से ही मिलती-जुलती २३वे तीर्थर तथा विजयनगर-कालीन प्रतिमायें अधिक है जो पाषाण पार्श्वनाथ को भी प्रतिमा होती है। इसी कारण पहले तथा कांस्य दोनों ही में निर्मित हैं। इन्हीं मूर्तियों में से बहुत से विद्वान दोनों प्रकार की प्रतिमानों का विशेष एक प्रस्तर प्रतिमा को जो गहड़वाल काल की है (लगभग अन्तर न जानने से एक प्रतिमा को दूसरे तीर्थपुर की १२वी शताब्दी ईसवी), और विशेष महत्व की है, हम प्रतिमा बता दिया करते थे (देखें : बी०सीद भट्टाचार्य, इस लेख द्वारा पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे है। 'जन-माइक्नोग्रफी', पृ०६१)। परन्तु इस सम्बन्ध में यह
कुछ समय पूर्व चित्तौडगढ (गजस्थान) से जैनियों उलेखनीय है कि सुपाश्वनाथ की प्रतिमा स के एक, पाँच के ७वें तीर्थदूर मृपाश्वनाथ की एक प्रतिमा प्राप्त हुई थी
अथवा नौ फणो की छाया में होती है जबकि पार्श्वनाथ जो अब राष्ट्रीय संग्रहालय में मुरक्षित है। इसमें भगवान्
की मूर्ति सर्प के तीन, मात या ग्यारह फणों की छाया पद्मामन पर पांच फणो के नीचे शिरीप वृक्ष की छाया में
में मिलती है। दूसरी विशेष बात यह है कि प्रथम तीर्थजिमक नीचे उन्हे कैवल्य की प्राप्ति ही शानदार का चिह्न स्वस्तिक है जब कि द्वितीय का सपं है। विराजमान है। उनके घुधगले केशो के ऊपरी भाग में
सुपार्श्वनाथ की अपेक्षा पाश्र्वनाथ की मूर्तियाँ कहीं उष्णोश है तथा लम्ब कान और वक्षस्थल पर बना 'श्रीवत्स अधिक सख्या में मिली है। (ग्वजराही का तो प्रसिड पूर्ण रूप से स्पष्ट है। 'जिन' के दोनो योर एक-एक अन्य पार्श्वनाथ मन्दिर वहाँ के अन्य गभी जैन मन्दिरों से बड़ा
र प्रतिमा ताखो में कार्यात्म मटा में खडी है। तथा कला की दृष्टि से भी धेष्ठ है)। इसका एक मात्र शीश के दोनों ओर एक-एक माला धारी विद्याधर है। कारण यह प्रतीत होता है कि जैन धर्म में तीन तीर्थरप्रतिमा के सबसे ऊपरी भाग में भी दोनों ओर सपाश्वनाथ ऋपभनाथ, पाश्र्वनाथ तथा महावीर को विशेष महत्व दिया को ज्ञान-प्राप्ति पर हर्प ध्वनि करते हा गजारूढ दिव्य जाता है तीनों तीर्थदूरो को ही समान सख्या में मूर्तियां गायको एव दिव्य बादकों का अंकन है। प्रस्तुत प्रतिमा उपलब्ध हुई है। वैसे अन्य नीथङ्करों की भी प्रतिमाएँ अत्यधिक खण्डित होने पर भी कलाका एक अच्छा नमूना प्राप्त है । अत
प्राप्त है । अतः यही कारण है कि पार्श्वनाथ की सुपार्वहै, जैनियों के दिगम्बर समप्रदाय की है।
नाथ की अपेक्षा पूजा अधिक प्रचलित होने से मन्दिरों में
भी इनकी ही अधिक मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित की गई होंगी भगवान् मुपाश्वनाथ की पूजा मध्यकालीन गजस्थान जो आज उपलब्ध है। (देख मेरा लेख : 'पाश्र्वनाथ की में प्रचलित थी जैसलमेर के शासक व्यर सिंह के बासन- अप्रकाशित प्रतिमा. बरदा, बिसाऊ, राजस्थान' की प्रमुख काल सन् १४३६ ई. में पासड़ नामक एक व्यक्ति ने अपने पत्रिका में)। 'अनकान्त' के किसी पागे के प्रङ्क में इस परिवार के अन्य सदस्यों के साथ चिन्तार्माण के मन्दिर में विषय पर हम कछ अधिक प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।