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साहित्य-समीक्षा
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सीमालवंशोद्भवशीतभानु. मुक्तोपम श्चीचड़ गोत्र बिखर गई होंगी। जौनपुर सम्बन्धी समस्त लेग्वो को
शुक्ती ॥ संगहीत किया जाय तो वहां के जैन इतिहास पर अवश्य भी सहनपाल तनुज. सकल महापुरुप पर्षदा रत्न। ही महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ेगा। :मातुः पूरादेव्या उदर सर: सरसिजः प्रतिमः ।।५।। इस प्रशस्ति में जौनपुर के लिए यवनपुर शब्द का 'द्रव्यं तदेव सफलं यत् स्यादुपयोगि धर्म कार्येषु । प्रयोग किया गया है वह अवश्य ही विचारणीय है।
इति परिभाषयमानः श्राद्धः श्रीमल्लराजाख्यः ॥६। संस्कृत विद्वानों ने अनेक स्थानों व व्यक्तियों के देशी नामों "तीर्थ क्षत्रिय कुण्ड राजगृहक: श्री मदुगल्लादि सद्यात्रा। का विचित्र ढग से संस्कृतिकरण कर दिया है जो कभी. कृत्य निरुद्ध सर्व कलुषः पीयूष वाक्यः सुधी.। कभी बहत ही बेतका व भ्रमात्मक प्रतीत होता है। • पञ्चम्या स्तपसो विधाय महता व्यासेन चोद्यापनम् । जौनपुर के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों मे क्या-क्या नाम पाये मिद्धान्तान् पकलान् क्रमेण विधिनाध्यारोपयन् पुस्तके १७ है? यह नाम क्यों पड़ा? इत्यादि बातें अन्वेषणीय है।
रम नयन समिति विधुमित विक्रम संवत्मरे ।
जिन कमलमयमोपाध्याय के उपदेश मे उपर्युक्त स पुण्यात्मा श्रीमद्भगवत्यंग सिद्धान्त लेखयांचके ॥॥ भगवती मूत्र लिखा गया है ये अपने समय के प्रभावशाली शुभ मस्तु॥
और प्रसिद्ध विद्वान थे उनके हाथ का लिखा हुमा एक जौनपुर मे जैन मन्दिर एवं श्रावको के घर उम ममप स्वर्णाक्षरी पत्र नाहर जी के मंग्रहालय में ३०-३५ वर्ष कितने थे? इस विषय में खोज की जानी चाहिए। वहा पूर्व देखा गया था। कविवर बनारसीदाम खरतर गच्छ के श्रावकों ने हस्त निम्विन प्रतियाँ लिखवायी है तो मभव के जिन प्रभमूरिशाखा के अनुयायी थे, उपर्युक्त प्रशस्ति है वहाँ ज्ञान भण्डार भी रहा हो। पीछे में जब श्रावक उमसे भिन्न जिनभद्र मूरि शाग्वा की है। इमसे खरतर लोग वहाँ मे चले गये तो वहाँ की प्रतियाँ भी यत्र-नत्र गच्छ की दोनों शाम्बानो का वहां प्रभाव मानूम होता है ।
साहित्य-समीक्षा
१जैन सिद्धान्त भास्कर
निबन्ध रहे तो अधिक उत्तम हो। अंग्रेजी के जैन पाठक सम्पादक . डॉ० ज्योतिप्रमाद जैन तथा डॉ. नेमिचंद्र न्यूनतम है। पहले का समय गुजर चका है। ऐमा करने जैन, प्रकाशक . देवकुमार जैन प्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टी- में हिन्दी के प्रचार-प्रमार में भी पर्याप्त महयोग मिल ट्यट, जैन मिद्धान्त भवन, प्राग, पाण्मामिक, दिसम्बर मकेगा। १९६४, भाग २४, किरण १, मूल्य ६ २० वार्षिक, निबन्धो का चयन उतम है। किन्तु 'हेमचन्द्राचार्य के पृष्ठ १००।
व्याकरणोद्धत अपभ्रंश दोहों का माहित्यिक मूल्यांकन' जैसे 'जैन मिद्धाल भास्कर, एक पुगना शोध पत्र है। निबन्ध कुछ भ्रमोन्पादक बन जाने है। हेमचन्द्र के अर्याभाव के कारण अभी बीच में कतिपय वर्ष बन्द रहा। व्याकरण में पाये उद्धरण उनके अपने नहीं हैं। उन्होंने अब पुन: चाल हुमा है। यह प्रसन्नता का विषय है। हम उनका चयन अन्य ग्रन्थों में किया था। किन्नु विद्वान उसका स्वागत करते हैं। हमारी अभिलापा है कि यह पाठक तक उन्हें हेमचन्द्र का मान बैठते हैं। मुझे स्मरण पत्रिका पाण्मामिक के स्थान पर त्रैमासिक निकने, जैसे है कि हिन्दी की एक गंगोष्ठी में एक प्रमिद्ध स्कालर ने कि पहले निकलनी थी।
इन उद्धरणों को हेमचन्द्र की रचना मानकर कटु पालोइममें हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के निबन्ध चना की थी। प्रकाशित हुए है। यह इसकी पुरानी परम्परा के अनु- २ भारतीय जैन साहित्य परिवेशन १ कूल है। किन्तु जहां तक मैं समझा है यदि हिन्दी के ही प्रधान सम्पादक : पं. कैलाशचन्द्र जैन शास्त्री,