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________________ भूषरवास का पावनपुराण: एक महाकाव्य कमठ का जीव नरक में गया । नारकियों ने ज्यों ही धारण करने वाली सीप थी। नये नारकी को देखा, मारने के लिए दौड़े। वे विविध जब इन्द्र ने यह जाना कि वामादेवी के गर्भ में तीर्थकर मायुधों से उसके शरीर को खंड-खड कर देते थे और वे उतरने वाले हैं तो कुलगिरि कमलवासिनी देवियों को खडित टुकड़े पारे के समान फिर मिल जाते थे। नारकी उनके पास भेजा। उनमें 'श्री' नाम की देवी को लेडी डा. उसके चरणों को कभी तो कांटों से छेद डालते थे, कभी ही कहना चाहिए। उसे वामादेवी के गर्भ को शुद्ध बना उसके अस्विजाल को चूर-चूर कर देते थे और कभी देना था। उसका कांतिवान शरीर लावण्य से भरा था। उसकी खाल को उधार कर कुचल डालते थे। कभी कुठार महाराज अश्वसेन के प्रसाद में आकाश से उतरती हुई वे पकड़ कर उसको काठ के समान चीर देते थे, कभी उदर ऐसी मालूम पड़ती थी, मानो नभदामिनी ही उतर रही को विदीर्ण करके अन्तरमालिका तोड़ डालते थे, कभी कोल्ह में पेल देते थे, कभी कांटों की शय्या पर सुलाते थे। आश्चर्यजनक रूपसम्पदा थी। उनके माथे पर चड़ामणि और कभी शूली पर रख देते थे। इस भांति इस महाकाव्य जगमगा रहा था। में रूढिबद्ध होते हुए भी नरक का वर्णन साक्षात् कर दिया जिसे देख चकाचौधसी लगती थी। उनके वक्षस्थल पर गया है। कल्पवृक्षों के पुष्पों की माल थी, जिसकी सुगन्धि दशों बनारस के राजा अश्वसेन की पत्नी का नाम था दिशामों में फैल रही थी। उनके पैरों से घुघुरुषों की वामादेवी उसका रूप अनुपम था, वह सब गुणों से भरपूर 'श्रवण सुखद' झंकार उठ रही थी, उसकी मधुरता थी। ऐमा प्रतीत होता था जैसे रूप जलधि की बेला ने प्रवर्णनीय है। ही जन्म ले लिया हो। उसमें नख से शिख तक अकृत्रिम भगवान के गर्भ में अवतरित होने पर इन्द्र ने रुचिक मुहाग पुलकित हो रहा था। उसकी देह सब सुलक्षणों से वासिनी देवियों को जिन-जननी की सेवा के लिए भेजा। मडित थी, वह तीन लोक की स्त्रियो का शृङ्गार थी। ये देवियाँ तेरहवे रुचक नाम के द्वीप मे, रुचक पर्वत के वह मधुर भारती का तो अवतार ही थी। उसके आगे शिखर कुटों में रहती थीं। उन्होंने इस सेवा को अपना गम्भा दीन सी प्रतिभासित होती थी। रोहिणी का रूप परम सौभाग्य ही माना। कोई माँ का स्नान-विलेपन क्षीण हुआ मा प्रतीत होता था और इन्द्रवधु ऐसी प्रतीत करती थी और कोई शृंगार मजाती थी। कोई भूषण होती थी, जैसे रविद्युति के आगे दीपक की लौ१ । वह वसन पहनाती थी, कोई भोजन कराती थी, कोई पान गील-मम्पदा की निधि थी; सज्जनता की अनुपम अवधि खिलाती थी और कोई सुन्दर गाना गाती थी३ कोई माँ थी कला और सुबुद्धि की सीमा थी। उसका नाम लेने से हर हो जाते थे क्योंकि वह महापाप रूपी मक्ता को १-मज्जनता की अवधि अनुप । कला सुबुधि की सीमा रूप ॥ पावपुराणपं० भूधरदास, प्र. जिनवाणी कार्यालय कलकत्ता नाम लेत अघ तजै समीप । १-नखशिख मुहागिनी नार। महापुरुप मुक्ता फल सीप ॥ तीन लोक तिय तिलक सिंगार ॥ -पंचम अधिकार, पृ० सं० ४५ सकल मुलच्छन मंडित देह । २-महाकांत तन लावन भरी। भाषा मधुर भारतीय येह ॥ मानो नभ दामिनी अवतरी ।। रम्भा रति जिस आगे दीन । अंग अंग सब सजे सिंगार । रोहिनि रूप लगे छवि छीन ॥ रूप मम्पदा अचरज कार । इन्द्र वधु इमि दीसे सोय।। ३. पार्श्वपुराण भूधरदास जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता । रवि दुति पागे दीपक लोय ॥ आई भक्ति नियोगिनी देवी, जिन जननी की सेव भजे । -पंचम अधिकार पृष्ठ सं० ४५ कोई नहान विलेपन ठान, कोई सार सिंगार सर्ज।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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