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________________ डा. जेकोबी और वासो-चन्दन-कल्प २४७ सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र लोके ॥ -भक्तामरस्तोत्र पद्य (१७) जहा भगवान को अदभन गूर्य के रूप में वरिणत कर प्रतिमयोक्ति का चमत्कार दिखलाया गया है। कवि प्रादिजिनको बुद्ध, शकर, धाता और पुरुषोत्तम गिद्ध करता हुमा कहता है बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधा स्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरस्यात् घातासि धीर शिवमार्गविविधानात व्यक्तं त्वमेव भगवन ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥ -भक्तामरस्तोत्र पद्य (३५) इस प्रकार मानतुग मे काव्य-प्रतिभा भोर इनके इस स्तोत्र काव्य में मभी काव्य-गुण ममवेत है। डा० जेकोबी और वासी-चन्दन-कल्प मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी 'द्वितीय नेपथ के चतुर्थ अधिशास्ना श्री मुज्जयाचार्य कृत उनकी सहमति लेकर गजकुमार मृगापुत्र प्रबजित हो चौबीमिवों१ का सम्पादन कार्य करते समय वासीचन्दन- जाता है । समस्त मांसारिक मानन्दों को छोड़कर, मृगा. माम्य का प्रयोग जब सामने आया२ तो 'उत्तगध्ययन मूत्र३ पुत्र मयम की माधना प्रारम्भ करता है। के उन्नीसवे अध्ययन की स्मृति हुई। इस संदर्भ में डा० नि.श्री यस की साधना करने वाले साधक के लिये यह हर्मन जकोबी द्वारा अंग्रेजी में अनूदित 'उत्तराध्ययन मूत्र'३ अनिवार्य है कि वह अपनी मन. स्थिति में मध्यस्थता की का अवलोकन किया। उनके द्वारा किया गया विश्लेषण उम वृत्ति का विकास करे, जिममे अनुकूल और प्रतिकूल कुछ पाश्चर्यजनक नगा। परिस्थितियो में वह समभाव रख सके । साधक मुगापुत्र ने उतराध्ययन सूत्र: साम्य-योग की इस साधना में अद्वितीय सफलता अजित जैन आगम 'उत्तराध्ययन मूत्र' के उन्नीसवे अध्ययन में की । उस स्थिति का वर्णन 'उत्तराध्ययन मूत्र' इन गब्दों जैन श्रमण मगापुत्र के जीवन-वृत्त का सुन्दर चित्रण किया में करता हैगया । सुग्रीव नामक रमणीय नगर के नृपति बलभद्र और लाभालाभं सुहेदुक्खें, जीवियं मरणं तहा । गनी मृगा के बलश्री (मृगापुत्र) नामक युवराज कुमार समो निदापसंसासु, तहा माणावमाणो॥ को, किमी धमण को देखकर, पूर्व जन्मों का ज्ञान (जानि प्रणिस्सिमो इह लोए परलोए प्रणिस्सियो । स्मरण ज्ञान) होता है। उसे स्मृति होती है, मैं स्वय पूर्व वासोचंदणकप्पे य उसणे प्रणमणे तहा॥ जन्म में माथु था । सासारिक दुःखों से मुक्त होने के लिये डा. कोकी को व्याख्या धमणव को धारण करना उसे अावश्यक प्रतीत होता जर्मन विद्वान डा. जकोबी ने 'सेकंड बुक्स प्राफ दी है। उमकी प्रात्मा विरक्ति के पवित्र भावो मे रग जाती ईस्ट' की ग्रन्थमाला में 'ग्रा चाराग, सूत्रकृताग, कल्प,' और है और माता-पिता के साथ एक लम्बे संवाद के पश्चात् उत्तराध्ययन, इन चार प्रागमी का अग्रेजी में अनुवाद किया १. बड़ी चौबीसी और छोटी चौबीसी। है५ । मृगापुत्रीय अध्ययन की उक्त गाथाम्रो का भाषान्तर २. वामीचदन समपणे थिर चित्त जिन घ्याया। उन्होंने निम्न प्रकार से किया है :दम तनुसार तीकरी, प्रभु केवल पाया ।। जयाचार्य कृत चौबीसी (छोटी) ११४४. उनगध्ययन, मूत्र अध्ययन १६, गाथा ६०,६२ 3. Sacred Book of the East Gaina Sutras, 5. Sacred Books of the East, vols. XXII, To. By Dr. H. Jacobi Vol. XIV. XIV.
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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