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प्रनमार बताया कि पानी गरम करके एक दम ठंडा करके उत्कृष्ट प्रादर्श उपस्थित किया, उमी के कारण उन्हें पीना चाहिए। माल, बैगन जैसे पदार्थ नहीं खाने उच्चतम पद व प्रनिष्ठा प्राप्त हई यौर जन मामान्य के चाहियें। क्योंकि हर एक बीज के साथ पर हर एक अकुर लिए वे उपास्य बन गए। इस माधना को ब्रह्मचर्य नाम
माथ जीवोत्पत्ति की सम्भावना होती है। एक पालू दिया गया और प्रणवनों तथा महावतों में उसका भी खाने से जितने अंकूर उतने जीवों की हत्या का पाप पांचवे व्रत के रूप में समावेश किया गया। वैसे तो अपरिलगेगा। मक्ष्मातिमूक्ष्म जीवों की हत्या से बचने के लिए ग्रह में भी इन्द्रिय निग्रह की भावना निहित थी। परन्तु इतना सतर्क रहना पड़ता है, कि वही जीव व्यापी साधना उसका सम्बन्ध सामान्य जनो के लिए जैसा चाहिए, वैमा बन जाती है। पानी गरम करके एकदम ठडा करना आन्तरिक निग्रह के साथ नही था। प्रान्तरिक निग्रह के महपत्ति लगाना है, शाम के बाद भोजन नहीं करना आदि बिना इन्द्रिय निग्रह पूर्णता पर नहीं पहुँच सकता। इस रीति-धर्म का विकास हुना।
प्रकार बीतगग भावना का समावेश होने पर जैनधर्म की शुरु-शुरू में यह वैज्ञानिक शोध-खोज थी। हमारा
परिकल्पना को पूर्णता प्राप्त हुई और जन मामान्य ने माया उसके प्रातसारमा हिमामहावीर को ही लोकोत्तर माधना से जैनधर्म को जो नाम धर्म भी। कपिल ने जब साम्य-दृष्टि और प्रात्मौपम्य व रूप प्राप्त हुया, वह अवश्य ही भगवान महावीर की भावना के रूप में धर्म-व्यवस्था कायम की, तब उमका विगमत है। नाम तक जन धर्म नही था । यह कहा जा सकता है, कि
भगवान ऋषभदेव में भगवान महावीर तक जैनधर्म इस धर्म व्यवस्था का श्रीगणेश हुअा, उम माम्य भावना म "
मे निरन्तर जो उत्क्रान्ति हई, उमको क्रमश: माम्य, से जिमका सम्बन्ध था, मानव के पारस्परिक बाहरी व्यव- प्रात्मौपम्य, हिमा, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य शब्दों में हार के माथ । प्रात्मतत्त्व की जीव मात्र में अनुभूति होने व्यक्त किया जा सकता है। इन्हीं को अणुव्रत तथा महापरमात्मौपम्य भावना जागत हुई। इस दृष्टि और भावना
व्रत का रूप मिला । माम्य का ही नाम सत्य और आत्मीमें से ही अहिंसा तत्त्व का प्रादुर्भाव हा। तब तक जैन पम्य का अस्तेय हो गया। क्योंकि सत्य के विना साम्य धर्म निर्ग्रन्थ धर्म कहा जाता था। भगवान नेमिनाथ और अस्तेय के बिना आत्मौपम्य तत्त्वों का पालन नही पौर भगवान पाश्र्वनाथ ने उसमें अपरिग्रह भावना का किया जा सकता । विकास का यह क्रम भगवान महावीर समावेश किया, क्योंकि इसके बिना सामान्य जन के लिए के बाद भी जारी रहा । ऐतिहासिक आधार पर यह नहीं अहिंसा धर्म का पूर्ण रूपेण पालन कर सकना सम्भव न कहा जा सकता कि जैनधर्म मे मन्दिर मूनिमार्ग का समाथा। भगवान पार्श्वनाथ के बाद वे 'जिन' प्रकट होते है, वेश कब और कैसे हुआ, परन्तु यह सष्ट है कि इस मार्ग जो वीतरागता पर जोर देते है। उनकी दृष्टि यह होती मे विकार पैदा होने के कारण जो पाखण्र, आडम्बर है कि कठोर इन्द्रिय के निग्रह बिना राग-द्वेष कलह, तथा प्रपच उत्पन्न होते है, उसमे जैनधर्म भी नही बच वैमनस्य तथा बिरोध भाव पैदा करने वाली दुर्वासनाओं मका । मध्यकाल में मन्दिर मूर्तिमार्ग के विरोध में एक पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। ऐसा विचार करने जबरदस्त लहर पैदा हुई । जैनधर्म में वह लहर स्थानकवाले जिनों में भगवान महावीर का स्थान सर्वोपरि है वासी शाखा के रूप में प्रकट हुई। उसके प्रवर्तक वीर लो'जिन' का अभिप्राय है जितेन्द्रियता । इन्द्रिय निग्रह की का शाह ने अपने गम्भीर अध्ययन के आधार पर यह मत की कठोर साधना को जीवन-व्यवहार में पूरा उतारने व्यक्त किया, कि जैन आगमों में मन्दिर-मूर्तिमार्ग का वाले "जिन" कहे गये हैं और उन्ही के नाम पर 'जिन' विधान नहीं है। उनको यह मत प्रकट करने पर बड़े शब्द से 'जैन' शब्द का प्रादुर्भाव हुमा । भगवान महावीर विरोध का सामना करना पड़ा और अन्य अनेक क्रान्तिने ३०-३१ वर्ष की प्रायु में गड़े बारह वर्ष में लोकोत्तर कारी सुधारकों की नरह धोखे से आहार में दिए गए विप तपस्या की, कठोरतम साधना में वीतराग स्थिति का जो से उनका प्राणान्त हुआ । वे जैनधर्म मे बहुत बड़ी क्रान्ति