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________________ आचार और विचार डा० प्रद्युम्नकुमार जैन, ज्ञानपुर [ आज मानवता के सामने यह समस्या है : क्या जीवन की भिन्न-भिन्न धार्मिक पद्धतियां परस्पर असंगत है ? क्या उनमें समन्वय लाने का कुछ प्राधार सम्भव नहीं ? लेखक के विचार से वह समन्वय विचार की प्रनैकान्तिक तात्विकता को ग्रहण करने से हो सकता है और एक विश्व-धर्म का प्राधार सम्भव बनाया जा सकता है । - लेखक ] ' । कहा जाता है कि पर्व ही जीवन है। संघर्ष और जीवन का तादात्म्य है। इस कहावत में केवल दो पद ही विचारणीय है-संघर्ष और जीवन कहावत का मूल प्राय यही लगता है कि इन दोनों पदों में अर्थ-भिन्य नहीं है। दोनों एक ही चीज के दो नाम हैं। संघर्ष एक प्रक्रिया का द्योतक है। इस प्रक्रिया में दो बातें है एक पर का निरोध और दूसरी स्व का विकास तो कहावत के अनुसार, यह पर का निरोध और स्त्र का विकास ही जीवन है। स्य और पर के परस्पर अभियोजन का नाम जीवन है। इसमें एक प्रक्रिया है, अभियोजन जिसका हेतु है। इस अभियोजनशील प्रक्रिया के दो किनारे है-स्व और पर जब तक वह प्रक्रिया स्व-अनुभूत है, । यह जीवन है और जीवन का विकास भी परानुभूत प्रक्रिया मौत है, पतन है यतः जीवन और मौत इस प्रक्रिया के पहलू हैं। जीवंत प्रक्रिया में पर का निराकरण है और मृत प्रकिया में स्व का निराकरण । 'पर' पर 'स्व' की विजय जीवन और 'स्व' पर 'पर' की विजय मौत है। मौत स्व का पूरा निराकरण है । प्रतः स्वानुभूति मौत में निराधित है। अब चूंकि मौत में स्व की अनुभूति नहीं, अतः स्व के प्रभाव में संघर्ष की इति है। इस प्रकार स्वानुभूति ही संघर्ष की घात्री है। स्व की विजय ही जीवन है। स्व इस तरह जीवन का प्रतीक हुमा मौर स्वानुभूति जीवन का आधार इसीलिए स्वानुभूति पर प्राचित जीवन और संघर्ष का तादात्म्य है। और तब यह कि संघर्ष ही जीवन है-एक सत्य धारणा है। । अब चूंकि जीवन स्वानुभूति पर भाषित है और - स्वानुभूति पर प्रमङ्गाश्रित है, क्योंकि 'पर' 'स्व' का एक विरोधी विकल्प है और 'पर' की अपेक्षा ही 'स्व' स्व है । अतः पर और स्व के बारे में कोई भी निर्णय तभी वैध होगा, जबकि वह स्वानुभूति परक हो योंकि निर्णय में धान्यचेतन है और ग्रात्मचेतना स्वानुभूति में ही निहित है। स्वानुभूति इस प्रकार हमारे सम्पूर्ण निर्णयों की मूलाधार है। तर्क-प्रवाह की यह मूल-उद्गम अथवा प्रस्थान विन्दु है। स्वानुभूतिपरक होने के नाते ही सम्पूर्ण तर्क-प्रणाली जीवंत है और शीला भी वह संघर्षशीला । स्व और पर की निर्णायिका है, जिसका आदि और अंत स्वानुभूति में ही निहित है। अब चूंकि जीवन में स्वानुभूति है, और जीवन एक प्रक्रिया है अतः जीवंत प्रक्रिया में स्वानुभूति अवश्य है। यह क्रिया जब स्व की ओर उन्मुख है तो वह विकास है और जब पर की मोर, तो पतन । जिन्दादिल व्यक्ति का प्रत्येक प्रयत्न विकास की छटपटाहट है । धर्म श्रौर आचार इमी छटपटाहट का नतीजा है। अब हम कह सकते हैं कि आचार एक अभिप्रेरित प्रक्रिया है। अभिप्रेरण में एक ध्येय है और एक भावश्यकता की अनुभूति भी ध्येय विचार पर माथित है। अतः निश्चय ही, आचार और विचार में नियत साहचर्य है एतदर्थ धाचार एक अभिप्रेरित विचार प्रक्रिया है। आचार प्रक्रिया में अवश्य ही विचारालोक अपेक्षित है। किया बिना विचार के बंधी होती है। ऐसी क्रिया प्राचार के अंतर्गत नहीं आती। यह भी सही है, कि यदि कोई प्रचारगत प्रकिया बाद में विचारशून्य हो जाए, तो वह
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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