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अनेकान्त
कि "प्रतः मेरी राय में इस..स्तोत्र का कर्तृत्व विषय प्रभी का उल्लेख तो कई पट्टावली में है। लेकिन यहां प्रथम विशेप विचार के लिए खुला है और उस तरफ विशेष अमरकीति और उनके शिष्य वादि विद्यानन्दी स्वामी का अनुसंधान कार्य होना चाहिए।"
उल्लेख विशेष है । वि.विद्यानन्द की मृत्यु सं० १५९८ जिंतूर (जिला परभणी) की एक पुरानी पोथी में से
में हुई है । वे पट्ट पर ७५ साल तक होंगे ऐसा समझ लिया हुमा बलात्कारगण पट्टावली का कुछ भाग आगे
तो भी अलाउद्दीन खिलजी का काल सं० १५२३-२४ देता हूँ। प्राशा है वह इस संबंध में कुछ उपयुक्त होगा।
__यह नहीं है। खिलजी अलाउद्दीन को अलाउद्दीन सुलतान
यह नहा 'श्री मूलसंघ श्रीमालतिलकाय वरेण्यानां, परपरा- भी कहते हैं। वह सं० १३५१ से १३७१ तक गद्दी पर प्रवर्तित मलयखेड महिसिंहासनयोग्यानां, श्रीमदराय राज- था। अर्थात् पलाउद्दीन मान्य विद्यानन्दी स्वतन्त्र है, और वे गुरू वसुन्धराचार्यवयं महावादवादीश्वररायवादी पितामह- अमरकीर्ति के शिष्य भी है। प्रतः श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र सकलविद्वज्जन चक्रवर्तीना, 'श्रीमदमरकीति' राऊला याग्र
इनकी ही कृति होगी, जैसाकि इस स्तोत्र के अंतिम पुष्पिका मुख्यानां । स्वभुजो पगक्रमोपाजित जयरमाविराजमान
वाक्य में बताया है-इति श्रीमदमरकीतियतीर प्रिय चारुदोर्दण्डमंडित-प्रशस्त - समस्त-वैरिभूपाल - मानमर्दन
शिष्य श्रीमद्विद्यानन्दस्वामीविरचित श्रीपुर पार्श्वनाथ प्रचंडाशेप तुरखराजाधिराज अलावदीन सुलतान मान्य।
स्तोत्र संपूर्णम् । श्रीमदभिनव 'वादिविद्यानंदी' स्वामीनां । तत्पट्टोदय
इन प्रथम विद्यानन्दी का काल इससे सं० १३६० से दिवाकर 'श्रीमदमरकीति' देवानां । तत्पट्टोदयाद्रि दिवा
I सं० १४०० तक हो सकता। और इनके शिष्य अमरकीति करायमान प्रथमवचनवण्डय 'वादीन्द्र विशालकीति' भट्टा
- (द्वि०) तथा विशालकीति इनका काल एकेकका ६०रकानां तत्पट्रोदयाद्रि दिवाकरायमान श्रीमदभिनव वादि
६५ साल मानो तो विद्यानन्दी और विद्यानन्द ये दो विद्यानन्द' स्वामीनां । तत्पद्रोदयाद्रि दिवाकरायान-नित्या
स्वतन्त्र व्यक्ति ठहरते है। वैसे तो विद्यानन्दी और द्यकांत वादि प्रथम वचन खण्डन प्रवचण रचनाडम्बर
विद्यानन्द नाम में खास फरक नहीं हैं, क्योंकि एक षड्दर्शन स्थापनाचार्य षट् तर्क चक्रेश्वर श्रीमंत्रषादि
ही लेख में एकही व्यक्ति के लिए दोनों नाम आते हैं। 'श्रीमद्देवेंद्रकीति' देवानां। तत्पट्रोदय देवगिरि-परमत...
प्रतः काल भिन्नता से ही ये स्वतन्त्र दो व्यक्ति सिद्ध होते ..'सार्थकनाम भट्टारक श्रीमद् धर्मचन्द्र देवानां । तत्पट्टो
है । प्रस्तु, दयाचल...."भट्टारक 'श्रीधर्मभूषण' देवानां । तत्पट्ट... 'श्रीमद्देवेन्द्रकीति' देवानां । तत्प?............"भट्टारक प्रसंगवश यहा यह निवेदन करना उचित 'श्रीकुमुदचन्द्र' देवानां । तत्पट्ट भास्करायमान ''भट्टारक समझता हूँ कि रामगिरि शब्द के वाच्य जैन साहित्य 'श्रीधर्मचन्द्र' देवानां । तत्प? श्री....... दिवाकरायमान में अनेक हैं । जैसे-रामटेक, रामकुण्ड, रामकोण्ड, भट्टारक श्रीमलयखेड सिहासनाधीश्वर भट्टारक 'श्रीधर्म- गिरणार प्रादि । इसका समर्थन प्रेमीजी करते हैं भूषण' देवानां 'श्रीमद्देवेन्द्रकीति' तपोराज्याभ्युदय समृद्धि कि-'हमारे देश में राम शब्द इतना पूज्य है कि उसे सिद्धिरस्तु ।
किसी भी पूज्य तीर्थ के लिए विशेषण रूप से देना अनुइसमें दो प्रमरकीति तथा दो विद्यानन्द का उल्लेख चित भी नहीं।' प्रतः लक्ष्मी मठः स्तोत्र का उल्लेख है। द्वितीय अमरकीति-विशालकीति-विद्यानन्द मादि शिरपुर के बाबत करना अनुचित नहीं होगा।