SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंतरिक्ष पार्वनाम भीपुर तथा बीपुर पाश्र्वनाम स्तोत्र समय जहां रुकी वहां ही आज अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्रीपुर पीछे देखा कि क्यों रुकी। ऐमा मानने में कोई मापत्ति हैं, ऐसा मानते हैं। नहीं पाती । ऐसे कई उदाहरण हैं कि मूर्ति दूसरे स्थान जहां तक इस क्षेत्र के केवल माज के स्थान का संबंध पर से अपने स्थान परया गांव में प्रा गई। तो वहां है, वहां तक यह निविवाद है, कि यह अंतरिक्षजी का ही अचल हो गई। इसके लिए वे अपने गांव का भी धीपुर महाराष्ट्र स्टेट के अकोला जिले में है और उसका उदाहरण देते थे। अस्तित्व कम से कम दसवीं शताब्दी से तो आज तक इस तरह अंतरिक्ष पाश्वनाथ के अस्तित्व का समय, प्रखंड है। स्थान तथा घटना इस पर कथानकों के आधार से ही प्रकाश अब विवाद है कि दसवीं शताब्दी के एक श्रीपाल डाला गया है। लेकिन एक प्रसंग का विरोध भी किया राजा ने अगर यह नगर बसाया तो पहले इस मूर्ति का है। वह प्रसंग है-'खरदूषण (कहीं माली मुमाली) राजा वह कूप या पोखर (जहां यह मूनि राजा को मिली और ने बालू की प्रतिमा बनाकर पूजन के बाद उसको जलकूप उस जल स्नान से राजा का कोड़ गया) कहां था? में विसजित कर दी। और इसका विरोध करने का डा० विद्याधरजी के ही शब्दों में 'पौर प्रतिमा मिलने महत्वपूर्ण कारण र महत्वपूर्ण कारण यह है कि, वह प्रतिमा मजबूत पाषाण पर राजा ने 'वहा' अपने नाम से श्रीपर नगर जमाया की है यह अनेक प्रसंगों में और अनेक प्रमाणों से सिद्ध (यहां प्रतिमा रुकने 'पर' नहीं है), तथा जिनप्रभ मूरि। हमा है। अतः वह प्रतिमा बालू की बनाई थी इस पर के उद्धृत शब्दों मे 'तत्थेव' (तत्रैव) इस शब्द से तो यह विश्वास नही बैठता और जहाँ वह प्रतिमा पाषाण की सुनिश्चित होता है कि, जहां राजा का कोड गया और ठहरती, वहां वह उतने कम समय में और बिना शिल्पकार प्रतिमा मिली वहां ही उस प्रतिमा की स्थापना हुई। के नहीं बन सकती। अतः इस पर अधिक सोचने पर याने वह कप या पोखर कहीं मैसूर, धारवाड या एलोरा मालूम पड़ता मालूम पड़ता है कि वह कथन कोई एक की ही कल्पना जैसे दूर अन्य स्थान में नहीं हो सकता। अतः वह प्रतिमा होगी या भक्ति तथा सम्यक्त्व का महिमा बढ़ाने के लिए राजा को श्रीपुर के ही पौली मंदिर के कूप मे मिली राम रचित कथा होगी और उसका ही अनुकरण शेष लेखकों होगी इस अनुमान में कथा का विरोधी कहां पाया? न ? ने किया होगा। विनयराज ने भी (संवत् १७३८) यही बतलाया है कि कालक्रम से इस क्षेत्र का प्रथम उल्लेख करने वाले राजा ने उद्यान के कूप से यह प्रतिमा निकाली। महाप्रामाणिक चूडामणि दिगंबराचार्य मुनि मदनकीर्ति तीसरी बात-'प्रचीकरच्च प्रोत्तुग प्रासादं प्रतिमो- इस क्षेत्र के उत्पत्ति और समय पर नहीं लिखते इसका परि ।' इस सोमप्रभ गणी के कथन के अनुसार ही मेरा भी पर्थ उस समय इस क्षेत्र के नये उत्पत्ति की भ्रामक अनुमान है कि मूर्ति एलिचपुर ले जाते समय वह जहा कल्पना नहीं थी। रुकी (वह उसकी पहली जयह होगी जैसा कि गॅजेटिभर अपरंच, श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र के श्रीपुर के साथ में उल्लेख है) वहां से वह चलायमान नहीं हुयी। और पं० दरबारीलाल जी ने जो सम्बन्ध इम राजा के कथाराजा मंदिर वहां न बांधते बगीचे में पौली मंदिर नक के साथ जुड़ाया है, मानना होगा कि एक तो वह बंधाया इसलिए प्रतिमा उसमें विराजमान नहीं हुई। प्रतः सम्बन्ध गलत होगा, या तो वह श्रीपुर भी यही विदर्भ का गांव में प्रतिमा के ऊपर ही मंदिर बांधा गया। यहां श्रीपुर होगा । जैसा कि पं० जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले राजा को गर्व होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। वह ने इम स्तोत्र के श्रीपुर को विदर्भ का श्रीपुर अंतरिक्ष भ्रामक कल्पना बाद में शामिल हुई होगी। क्योंकि गर्व पार्श्वनाथ ही माना है । इसका दूसरा पहलू यह भी है होने का उल्लेख प्राचीन कथा में नहीं है। प्रो. खुशाल- कि इस स्तोत्र का रचना समय तथा कर्तृत्व भी प्रभी चन्दजी गोरावाला कहते थे कि, मूर्ति अपने मूलस्थान अनिश्चित या विवादस्थ है। श्री० पा० स्तोत्र के प्रकाशपर मायी तब रुक गयी और रुकी इसीलिए राजा ने कीय वक्तव्य में पं० जुगल किशोर जी मुख्तार लिखते हैं
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy