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भूधरदास का पाश्र्वपुराण: एक महाकाव्य
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पुष्पदंत के महापुराण की छाया भर-से प्रतीत होते हैं। वाया । वह अपने जेठ को देखने वहां चली गई। उसके पौराणिक शैली में लिखा गया विमलसूरि (पहली साथ कामचेष्टायें की गई। शताब्दी विक्रम का 'पउमचरिय' पहला जैन महाकाव्य है। लौटने पर राजा को सभी समाचार विदित हुए। एक ही महापुरुष के जीवनचरित को लेकर चलने
उसने मरुभूति के इन्कार करने पर भी कमठ को अपमान वाले दूसरे महाकाव्य वे हैं जो जैन परम्परा में स्वीकृत
के साथ देश से निकाल दिया। वह एक पर्वत पर जाकर ढंग को लेकर चले हैं, उनकी शैली रूढिबद्ध है। उनकी
पाखण्डी साधु बन गया। मरूभूति ने जब यह सुना तो कथा को कवि अपनी कल्पना शक्ति से, मनचाही दिशा की
भ्रातृ-प्रेम से अनुप्राणित हो उसके पास गया। उसने एक पत्थर
जा मोर नहीं मोड़ सकता। सभी में नायक के पूर्वभव और
डाल कर मरूभूति को मार डाला। मागे नौ भवों तक यदि तीर्थकर हुआ तो पंच कल्याणकों का निरूपण अवश्य
दोनों भाइयों का बैर निरन्तर चलता रहा। एक भाई रहता है । यद्यपि इनके विषय प्रतिपादन का उद्देश्य बोध
कभी देव, कभी विद्याधर, कभी चक्री नरेश और कभी प्रदान होता है, किन्तु नायक के जीवन से सम्बन्धिन
इन्द्र बनता रहा तो दूसरा कभी दुष्ट सर्प, कभी अजगर, घटना और पात्रों का काव्यात्मक तथा अलंकृत ढग से कभी नारकी, कभी दुर्दान्त सिंह और कभी क्रूर मानव के वर्णन रहता है, अतः उनमें सरसता और आकर्पण की भी रूप में जन्म लेता रहा। पाश्वपुराण के तीन अध्याय इन कमी नहीं रह जाती है। वीरकवि का 'जम्बूस्वामीचरिउ' नो भत्रो का वणन करने में खप गये है। (अपभ्रंश) और हरिभद्र का नेमिनाह चरिउ (अपभ्रंश)
दसवे भव में मरुभूति का जीव, आनत स्वर्ग के इन्द्र इस शैली के जीवन उदाहरण हैं। भूधरदास का पार्श्व
पद से चल कर, बनारम के राजा अश्वसेन की पत्नी वामा पुराण भी इसी परम्परा का प्रतीक है। उसमें जनों के २३ ।
देवी के गर्भ में अवतरित हुआ। कमठ का जीव भी पंचम वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीवनचरित रूढ़िवद्ध रूप से
नरक से निकल कर महीपालपुर का नृप हुआ। वामाही निरूपित किया गया है। कथा में कहीं यत्किचत् भी
देवी उमी की पुत्री थी। मरूभूति के जीव ने तीर्थङ्कर प्रनानि परिवर्तन नहीं है। उसमें प्रसाद गुण, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक
का बन्ध किया था, अत: वामादेवी के गर्भ में प्राने छ. दष्टान्त और अनुप्रासों की स्वाभाविक छटा प्राकृतिक
माह पहले से ही इन्द्र के आदेश से धनपति ने साढ़े तीन अश्यों का नैसर्गिक चित्रण, और विविध भावों का चित्र
करोड़ रत्नों की प्रतिदिन वर्षा की और बनारम नगरी वत् उपस्थित करना नितान्त मौलिक है। इसी कारण
को अनुपम रूप में सजाया। वामादेवी ने १६ स्वप्न देखे पार्चपुराण, पुराण होते हुए भी महाकाव्य है।
जो तीर्थङ्कर के उत्पन्न होने का मकेत चिह्न थे। वैशाख के कथानक
कृष्णपक्ष मे, द्वितीया के दिन निशावमान में, भगवान् गर्भ पार्श्वनाथपुराण में दो भाइयों के बैर की कथा है। भरत
में पाये। इन्द्र के द्वारा प्रेरितरुचिकवामिनी देवियाँ तीर्थङ्कर क्षत्र के प्रसिद्ध नगर पादनपुर के राजा अरविन्द के मन्त्री की मां को विविध भांति सेवा कर उठी। विप्र विश्वभूति थे। उनके दो पुत्र हए-कमठ और मरु- वामादेवी के पौष मास, एकादशी, श्याम पक्ष, शुभ भूति । पहला कपूत था और दूसरा सपूत । विश्वभूति के बार मे पुत्र उत्पन्न हुआ। इन्द्र देव परिवार सहित जन्मोउपरान्त मरुभूति ही मन्त्री बना। एक बार मरुभूति गजा त्मव मनाने पाया। उसने बाल भगवान् को मुमेरूपर्वत अरविन्द के साथ राय वज्रवीग्ज पर आक्रमण करने नगर पर ले जाकर, क्षीरसागर के १००८ कलशों से स्नान के बाहर चला गया। राज्य कमठ के हाथ में रहा । उसने कगया। लौटने पर महाराज अश्वसेन के घर इन्द्र के तांडव अत्याचार किए। मरुभूति की पत्नी विसुन्दरी उस समय नत्य और अानन्द नाटक अद्भुत थे। महाराज ने स्वयं भी की सर्वोत्कृष्ट सुन्दरी थी। किसी भांति कमठ ने उसे देख पुत्र जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया । बालक शनैः शनैः लिया । कमठ उद्यान-स्थित महल में चला गया और वहां बढ़ने लगा और विविध बालचेष्टानों में समय भी सरकता से अपनी बीमारी का समाचार विसुन्दरी के पास भिज- गया। यौवन पाया, विवाह के लिए इन्कार कर दिया।