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जंन वर्शन में सर्वज्ञता की संभावनाएं
केवल धर्मज्ञ का अथवा धर्मज्ञता का निषेध करते हैं । यदि .. कोई पुरुष धर्मातिरिक्त अन्य सबको जानता है तो जाने, हमे कोई विरोध नहीं है:
धर्मज्ञत्व- निषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ सर्व प्रमातृ - संबंधि- प्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलाऽऽगम - गम्यत्वं लप्स्यते पुण्य प्रापयोः ३ ॥ किसी पुरुष को धर्मज्ञ न मानने में कुमारिल का तर्क यह है कि पुरुषों का अनुभव परस्पर विरुद्ध एवं बाधित देखा जाता है४ । अतः वे उसके द्वारा धर्माधर्म का यथार्थ साक्षात्कार नहीं कर सकते । वेद नित्य, श्रपौरुषेय और त्रिकालाबाधित होने से उसका ही धर्माधर्म के मामले में प्रवेश है ( धर्मे चोदनैव प्रमाणम्) । ध्यान रहे कि बौद्धदर्शन में बुद्ध के अनुभव, योगि ज्ञान को मौर जैन दर्शन में तु के अनुभव, केवलज्ञानको धर्माधर्म का यथार्थ साक्षात्कारी बतलाया गया है । जान पड़ता है कि कुमारिल को इन दोनों की धर्माधर्मज्ञता का निषेध करना इष्ट है । उन्हें त्रयीवित् मन्वादि का धर्माधर्मादि विषयक उपदेश मान्य है, क्योंकि वे उसे वेद प्रभव बतलाते है५ । कुछ भी
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ज्योतिविच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्राकं ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥ दशहस्तान्तरे व्योम्नि यो नामोल्लुत्य गच्छति न योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ . तस्मादतिशयज्ञानं रतिदूरगर्त रवि । किंचिदेवाधिक ज्ञातु गक्यते न त्वतीन्द्रियम् ॥ अनन्तकीर्ति द्वारा बृहत्सर्वज्ञसिद्धिमें उद्धृत ।
३ इन दो कारिकाओं में पहली कारकाको शान्तरक्षित ने तत्वसंग्रह में ( ३१२८ का० ) और दोनों को श्रनन्तबृहत्सर्वज्ञसिद्धि (१० १३७ ) में उद्धृत
किया है।
४. सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेदः कथं तयोः ॥
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हो, वे किसी पुरुष को स्वयं धर्मज्ञ स्वीकार नहीं करते । वे मन्वादि को भी वैद द्वारा ही धर्माधर्मादि का ज्ञाता और उपदेष्टा मानते हैं ।"
बौद्ध दर्शन में सर्वज्ञताकी संभावना :
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बौद्ध दर्शन में अविद्या और तृष्णा के क्षय से प्राप्त योगी के परम प्रकर्षजन्य अनुभव पर बल दिया गया है और उसे समस्त पदार्थों का, जिनमें धर्माधर्मादि श्रतीन्द्रिय पदार्थ भी सम्मिलित हैं, साक्षात्कर्ता कहा गया है। दिङ्नाग आदि बोद्ध-चिन्तकों ने सूक्ष्मादि पदार्थों के साक्षात्करण रूप अर्थ में सर्वज्ञता को निहित प्रतिपादम किया है । परन्तु बुद्ध ने स्वयं अपनी सर्वज्ञता पर बल नही दिया । उन्होंने कितने ही प्रतीन्द्रिय पदार्थो को मव्याकस ( न कहने योग्य) कहकर उनके विषय में मौन ही रखा६ । पर उनका यह स्पष्ट उपदेश था कि धर्म जैसे प्रतीन्द्रिय लिए किसी धर्म-पुस्तक की शरण में जाने की आवश्यकता पदार्थ का साक्षात्कार या अनुभव हो सकता है। उसके नही है । बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने भी बुद्ध को धर्मज्ञ हो
५. उपदेशो हि बुद्धादेधर्माधर्माविमोचरः । अन्यथाच्च पद्येत सर्वज्ञो यदि नाभवत् ॥
बुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसंभव: । उपदेशः कृतोऽतस्तैoर्व्यामोहादेव केवलात् ॥ येsपि मन्वादयः सिद्धाः प्राधान्येन त्रयीविदाम् । त्रयीविदाश्रितंप्रन्यास्ते वेदप्रभवोक्तयः ॥ नरः कोऽप्यस्ति सर्वज्ञः स च सर्वज्ञ इत्यपि । साधनं यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञामात्रमेव तत् ॥ सिसाधयिषितो योऽर्थः सोऽनया नाभिधीयते । यस्तुच्यते न तत्सिद्धौ किंचिदस्ति प्रयोजनम् ॥ यदीयागमसत्यत्वसिद्धौ सर्वज्ञतेष्यते । न सा सर्वज्ञ सामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ॥ यावदुद्धो न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचनं मृषा । यत्र वचन सर्वज्ञे सिद्धे तत्सस्यता कुतः ॥ प्रन्यस्मिन्न हि सर्वज्ञे वचसोऽन्यस्य सत्यता । सामानाधिकरण्ये हि तयोरंगा गिभावता भवेत् ॥
ये कारिकाएँ कुमारिल के नाम से अनन्तकीति ने
- प्रष्ट स. पू. ३, उद्धृत वृ. स. सि. में उद्धृत की हैं।
६. देखिये, मज्झिमनिकाय २-२-३ के चूलमालुंक्य सूत्र का संवाद ।