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वाराणसी जालमिनं गुणोघं,
संसार दावानल- नाशमेषम् । सुश्रीपुरस्थं० सर्वे सत्वेषु हितं विरवतं, सत्प्रातिहार्याष्टक संप्रयुक्तम् । सुश्रीपुर० वर्णेन नीलं कमलाभिरामं,
कल्याणयुक्तं सुभगं विरामम् । सुवंतावन्नव हस्तकार्य, श्रीशं सभायां प्रणतेन्द्र जायम् ॥ पद्मावती पं (मं) डित नाग सेब्यं,
देवेंद्रवर्यैः सततं हि काव्यम्यम् || सुश्रीपुर० । वि ( उ ) ध्वस्त लीला कमला सुरेंद्र,
भक्तया प्रणीतं प्रचुगमरेंद्रम् । सुश्रीपुरस्थं० ॥ ८ सूरश्री श्रुतसागरात्सुपठितो विद्वदबुधाधीमतः । सस्वध्यानयुतो गुरुषितनिरतः श्रीसिंहनंदी मुनिः ॥ स्तोत्रं श्रीपुरनायकस्य फणिभृत्पार्श्वप्रभोः पठेद् । भुक्त्वा मानवनाथनाथपदवी मुक्तिश्रियं सोभ्यगात् ॥६॥
१३. भ० चन्द्रकीति (सं० १६५४-८१) - ये काष्ठा संघ नंदीतटगच्छ के भ० श्रीभूषण के शिष्य थे । इन्होंने अन्तरिक्ष प्रभु का प्रष्टक रचा है । वे इसे दूसरा मोक्षतीर्थं ही मानते हैं । देखो
भ्रष्टक - 'पद्मसौम्य (सोऽन्य ) मोक्षतीर्थं दिव्य नीर धारया । शौरवाब्जपंकताब्जगधसार सारया ॥
वति चकि चक्रि चक्र चर्चीतं समर्चये । श्रीमदंतरिक्ष पार्श्वनाथ, चारुपाद पंकजे ॥ आदि । तीर्थ वंदना - सिरपुर ग्राम जेथे, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ॥४॥ भ्रष्टविध पूजा करा, चुके चौरघाशीचा फेरा ||६|ः"
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१४. भ० सोमसेन (सं० १६५६-६६ ) ये कारंजा सेनगण के भ० गुणभद्र के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६७२ तथा १६६६ में श्रीपुर में प्रतिष्ठा की थी । तथा सं० १६८० में वाशीम के अंबेकर पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की थी । कारंजा जितूर, अन्जनगांव, नागपुर नादि जगह भी इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ पाई जाती हैं । इनके साहित्य में भी इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता है ।
प्रचलमेरु जयमाला - 'बावनगज मगसी गोम्मटस्वामी, अन्तरिक्षादिक पण वंदामि ॥२१॥ इंद्रध्वज पूजान्तर्गत भारतीय तीर्थ क्षेत्र में
'आर्यखंडे सदा भाति पार्श्वनाथान्तरिक्षकम् तं यजे भवनाशाय जलाद्यर्घ्यं दवे मुदा ॥३३॥ जयमाल में : - 'जय ग्रन्तरिक्ष जिन पार्श्वनमो । जय विद्युतनाम जिनेंद्र, नमो ॥३१॥
भ० सोमसेन ने अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ जी के मन्दिर में सेनमण की गुरुगादी स्थापित की। वह ऊपर की मंजिल में है ।
१५. भ० विश्वभूषण (सं० १७२२ से ४४ ) ये बलात्कार गण अटेर शाखा के भ० थे । इन्होंने १०३ श्लोक की कृत्रिम कृत्रिम तीर्थ जयमाल लिखी है। इसमें प्रायः उस समय प्रसिद्ध सभी तीर्थो का उल्लेख है । 'अन्तरिक्ष वामा सुत मच्यें,
प्रद्भुत महिमा खग सुरम्यर्थे । लक्षेश्वर श्री शंख जिनेश्वर,
शंखसमुद्रं १ नेमिजिनेश्वर ||६८ || सं० १७४० के मार्गशीर्ष शुद्ध बीज को उन्होंने भ्रन्तरिक्ष प्रभु की वंदना पूजा की थी । देखो
'अर्धचंद्र सुहालफेणी पर्पटा शतरंध्रकैः । मालपूजा चन्द्रचक्रर्मोदकैर्दधि सङ्घटं ॥ अन्तरिक्ष पार्श्वनाथं संयजे गतस्मयं । क्षुधारोग निवर्तनायभव्याब्जनार्थ, धृतास्पदम् ॥ चरुं ॥ आदि ।
जयमाल -- पीठान्तरान्त भाति स पाइवनाथो, यस्याद्भुतं पश्यति सर्वलोकः । तस्यातिकां वै प्रभुनाथ शीघ्र, कैवल्यज्ञानोदय भ्राजमानः ॥ १॥ अन्तरिक्ष पीठे प्रप्रतिष्ठं, पार्श्वमनोज्ञ किल्विषनष्टम् । मणिमेचक शोभा अभिरामं,
सद्गुण विमल कीयधामम् ||२|| आदि । मालूम पड़ता है कि, श्रीपादवनाथ के सभी तीर्थों में यह स्वतंत्र ही तीर्थ है । इसका जैसा कि केवलज्ञान प्राप्त होने ही अधर विराजमान है, ऐसा
१. शंख समुद्भव ऐसा भी पाठ है।
चमत्कार सब देखते हैं । पर प्रभुजी समवशरण में मालूम पड़ता है। प्रोड्