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________________ बाबू छोटेलाल जी डा० प्रेमसागर जैन लोग धन कमा सकते है और उसके प्राधार पर यश था। यदि वे कलकत्ता या दिल्ली प्राये और वहाँ बाबु भी, किन्तु साथ-ही विद्वत्ता निरहंकार और न्याग गंजोना छोटेलाल जी हए तो उनके दर्शन किये बिना नहीं लौटते अामान नहीं। वह बिना साधना के नहीं पाता। बाबू थे। उनमें घण्टों पुरातत्त्व पर मामिक चर्चा होते मैंने छोटेलाल जी एक साधक थे। व्यापारी कुल में जन्म देखा है। जैन मूति, मन्दिर, चैत्य, मानस्तम्भ, शिलालेख, कर भी उनके हृदय का मूल स्वर सरस्वती की अराधना गुफाएँ प्रादि की टेक्नीकल जानकारी के वे एक सन्दर्भ में ही रम सका । बहत पहले कलकत्ता के लोगों ने एक ग्रन्थ थे । काश ! बे उसे किसी ग्रन्थ रूप में परिणत कर युवा व्यापारी को पब्लिक लायब्ररी में दिन-रात पडं पाते। जैन पुरातत्त्व का ऐसा पारखी अब ढूढ़े भी न देखा होगा। उन्होंने वहाँ सहस्रशः पत्र-पत्रिकायो और मिलेगा। पुस्तकों का अध्ययन किया । उस प्राधार पर सन् १९४५ मोहन जोदडों की खुदाइयों में कुछ खड्गामन मूत्तियाँ ई० में भारती परिषद्, कलकत्ता से 'जैन बिग्लियोग्राफी' प्राप्त हुई । बनारस विश्वविद्यालय के डा० प्राणनाथ ने के प्रथम भाग का प्रकाशन हुमा । 'रायल एशियाटिक उन पर उत्कीर्ण अक्षरों को जैसे-तैसे पढ़ा, लिखा था टी' के विद्वानों ने उसको भरि-भूरि प्रशंसा की। श्री जिनाय नमः । उनकी दष्टि मे ये मत्तियां जिनेन्द्र की जैन विद्वानो के लिए तो वह एक कोश ग्रंथ है। अनेक थी। बाबू छोटेलाल जी ने इसका सप्रामाणिक खण्डन अनुसन्धित्सु उससे लाभान्वित हुए है । इस ग्रन्थ का दूसरा किया। प्राज तक उस कथन को किसी ने काटा हो, मुझे खण्ड भी रफ-पेपर्स पर बिखरा पड़ा है। बाबू जी ने उसे स्मरण नही है। इसी भांति दक्षिण के एक प्रवकाश प्राप्त भी अत्यधिक परिश्रम से तैयार किया था। उनकी इच्छा विद्वान एक प्राचीन जिनेन्द्रमूर्ति (तीर्थकर) का फोटो थी कि वह विगत 'इण्टर नेशनल मोरियण्टल कान्फेस' लाये । उनके चेहरे पर एक ललक थी। वे अपनी उपके अवसर पर प्रकाशित हो जाता। किन्तु जर्जर होते लब्धि के प्रति सगर्व थे । लम्बी खासी से उभर कर बाबू स्वास्थ्य ने साथ न दिया। उनकी एक बलवती अभिलाषा जी ने प्रागन्तुक का स्नेह-भीना भातिथ्य किया। यह दिल में ही रह गई । बाबू जी के उत्तराधिकारी या वीर. बाबूजी का स्वभाव था । वे स्नेह के भण्डार थे। चित्र सेवा-मन्दिर इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने का प्रबन्ध देखा तो दो मिनट तक देखते ही रहे। फिर तकिये के करें, ऐसा मैं चाहता हूँ। बाबूजी ने मुझे अनेक देशी और सहारे बैठत हुए कहा, "वैसे तो अच्छा, बहुत अच्छा है, विदेशी विद्वानों के पत्र दिखाथे, जिनमे उनका स्नेह-भरा किन्त एक कमी भी है। आपको अपना फोटो तीर्थकर की आग्रह था-इसे शीघ्र प्रकाशित करने का ऐसा होने से प्रतिमा के साथ नहीं खिचवाना चाहिए था। जैन मूत्तिजैन अनुसन्धान का एक अध्याय पूरा हो जायेगा। कला का यह एक प्रारम्भिक नियम है।" प्रागन्तुक के न ही नहीं समूचे भारतीय पुरातत्त्व के सम्बन्ध में सधे, तपे, मंजे पुरातात्त्विक ज्ञान पर एक विनम्र चोट बाबू जी का ज्ञान अप्रतिम था । उन्हें इसकी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म लगी, तो कुछ समय तक तो वे बोल ही न सके। फिर जानकारी थी। भारतीय पुरातत्त्व के प्रसिद्ध स्तम्भ श्री फीकी मुस्कान के साथ कहा, "अच्छा, जंन दायरे की शिवराम मूर्ति और श्री टी. एन. रामचन्द्रन बाबूजी को यह बात मुझे मालूम न पी। वैसे मैंने कहीं सुना तो अपना गुरु मानते थे। मैंने उन्हें बाबूजी के चरण स्पर्श करते नही।" बाबजी ने कुछ हवालों के साथ उन्हें प्राश्वस्त देखा है । डा. मोतीचन्द्र जैन का बाबूजी से परम स्नेह किया।
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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