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________________ अनेकान्त प्रदान करने वाले) अग्नि (अग्नि प्रजापति को) धारयन् देवता को) धारयन् (धारण कर लिया)३ । समातरिश्वा (अपना पाराधना-देव धारणा कर लिया)। (वह वायु के समान निलेप और स्वतंत्र है) पुरुवार पुष्टि प्रस्तुत सूक्त ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण (प्रभीप्ट वस्तमों का पण्टिकारक साधन है), उसने स्ववित है। इसमें प्रथम तो भगवान् वृषभ की स्तुति में गाये जाने (ज्ञान सम्पन्न होकर) तनयाय (पुत्र के लिये) गातं वाले ऋक, यज, साम एवं अथर्व संहितामों में संकलित (विद्या), विदद (दे दी), वह विशांगोपा (प्रजाओं का स्तोत्रों से भी प्राचीन उन निविद अथवा निगद स्तोत्रों संरक्षक है), पवितारोदस्योः (प्रभ्युदय तथा निःश्रेयम का उल्लेख है। जिनसे ध्वनित होता है कि भगवान् का उत्पादक है), देवों ने उस ट्रव्यदाता अग्नि (अग्रनेता वृषभ पार्यगण के आने से पूर्व ही भारत के प्राराध्यदेव को ग्रहण कर लिया। थे। इसके अतिरिक्त इस सूक्त में भगवान् वृषभद्वारा निर्वाण की पुण्य वेला में जब प्रादि प्रजापति वृषभ मनूनों की सन्तानीय प्रजा को अनेक विद्यामा से समृद्ध ने विनश्वर शरीर का त्याग करके सिद्धलोक को प्रस्थान करने, अपने पुत्र भरत को राज्य-भार सौंपने तथा अपने 11 किया तो उनके परम प्रशान्त रूप को प्रात्मसात करने को अन्य पुत्र वृषभसेन को, जो जैन मान्यता के अनुसार वाली अन्त्येष्टि अग्नि ही तत्कालीन जन के लिये उनके भगवान् के ज्येष्ठ गणधर अथवा मानम पुत्र थे। ब्रह्म वीतगग रूप की एकमात्र संस्मारक बन कर रह गई। विद्या देने का भी उल्लेख है। इस सूक्त के निम्नांकित जाना ज प्रनिदान से ही अपने प्राराध्य के दर्शन पाने प्रथम चार मंत्रों में उल्लिखित तथ्यों की स्पष्टतः संपुष्टि लगी. उस समय मूर्तिकला का विकास नहीं हुआ था। होती है। अतः यह सप्तजिह्वा अग्नि ही उस महा मानव का प्रतीक अपश्चमित्रं (जो रासार का मित्र है) धिषणा च बन गई, उपलब्ध प्राचीन अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि साधन (जो ध्यान द्वाग साध्य है), सहसा जायमानः भगवान् के प्रति जन-जन के हृदयों में स्वभावत उद्दीप्त (जो स्वयंभू है) सद्यः काव्यानि वडधन्त विश्वा होने वाले भक्तिभाव को संतुष्ट एवं संतृप्त करने के लिये (जो निरन्तर विभिन्न काव्य स्तोत्रोंको धारण करता रहता उनके ज्येष्ठ गणधर [मानस पुत्र]ने इस भौतिक प्रग्नि द्वारा है, अर्थात् जिसकी सभी जन स्तुति करते रहते हैं), देवो मादि ब्रह्मा वृषभ के उपासनार्थ इज्या, पूजा एवं अर्चना अग्निं धारयन् द्रविणोदाम् (देवों ने उस द्रव्य दाता अग्नि का मार्ग निकाला था। वह याज्ञिक प्रक्रिया के प्रथम को धारण कर लिया)१।। विधायक थे। उन्होने ही लोक मगल के लिये अभीष्ट पूर्वतया निविदा काव्यतासो. (जो प्राचीन निविदों सिद्धि, अनिष्टपरिहार एवं रोग-निवृत्ति कर आदि अनेक द्वारा स्तुति किया जाता है), यमाः प्रजा अजन्यन् मनुनाम् । उपयोगी मन्त्र तन्त्र विद्याओं का सर्व प्रथम प्रकाश किया (जिससे मनुषों की सन्तानीय प्रजा की व्यवस्था की) था, वह वैदिक परम्पग में ज्येष्ठ अथर्वन और जैन विवस्वता चक्षुषा धाम पञ्च (जो अपने ज्ञान द्वारा द्यु और पृथ्वी को व्याप्त किये हए हैं), देवों ने उस द्रव्यदाता ३. ऋग्वेद १,६,३। को धारण कर लिया)२। ४. वही. १,६,४। तमीडेत महासाथं (तुम उसकी स्तुति करो जो सर्व ५. [प] सत्यवात सामथमी निरत्कालोचन वि. म. प्रथम मोक्ष का साधक है), अर्हतं (सर्व पूज्य है), पारीविशः उब्जाभूज्जसानम् (जिसने स्वयं शरण में आने वाली १०५३ पृ० संख्या १५५ । [पा] A.C. Das-Rigvedic Culture प्रजाको बलसे समृद्ध करके), पुत्र भरत संप्रदायूँ (अपने पुत्र P.113-115 भरत को सौप दिया), देवों ने उस द्रव्यदाता अग्नि (अग्नि (5) Dr. Winternitz-History of १. ऋग्वेद १,९,१। Indian, Literature Vo.I, 1927 P.I:20 २. वही १,६,२। [६] 'अग्निर्जातो अथर्वना'-ऋग्वेद १०,२१,५.
SR No.538018
Book TitleAnekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1965
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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