Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१४
उत्तराध्ययन सूत्र पहला अध्ययन
*****
-
भावार्थ - गुरु महाराज से कुछ पूछना हो तो शिष्य को चाहिए कि वह आसन पर बैठा हुआ कभी नहीं पूछे और न शय्या पर रहा हुआ ही पूछे, किन्तु गुरु के समीप आकर उत्कुटुक आसन से (घुटनों के बल बैठ कर ) विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर पूछे ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं में वाग्-विनय के स्वरूप का बड़ी ही सुंदरता से वर्णन किया गया है ।
विनीत शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह गुरुजनों के आह्वान् करने पर शीघ्र ही उनके पास आकर समुचित शब्दों में उनसे अपने लिए अनुष्ठेय कार्य की आज्ञा मांगे और इस बात के लिए अपना परम सौभाग्य समझे कि गुरु महाराज ने अपने पास बैठे हुए अन्य शिष्यों को छोड़ कर अमुक कार्य (सेवा) के निमित्त मुझे ही बुलाया है, यह उनकी मेरे ऊपर अऩन्य कृपा का सूचक है। इस प्रकार मोक्षाभिलाषी शिष्य गुरुजनों की प्रसन्नता का विचार करता हुआ सदा उनके समीप रहने पर ही अपने को अधिक पुण्यशाली समझे ।
गाथा २१ में ‘आलवंते' शब्द में 'आ' उपसर्ग ईषत् अर्थ का बोधक है जिसका तात्पर्य यह है कि गुरुजनों के थोड़ा सा बोलने पर भी उनके वचन को शीघ्रता से ग्रहण करने का प्रयत्न करे, किन्तु उनके वचन की उपेक्षा कदापि न करे ।
गाथा २२ में स्पष्ट किया गया है कि शिष्य को जो कुछ भी गुरु से पूछना हो, विनय युक्त हो कर पूछे, उसमें किसी भी प्रकार की अविनीतता न होने पावे, इस बात की पूरी सावधानी रखे। यहाँ जो 'उक्कुडुओ' शब्द आया है उसका संस्कृत में 'उत्कुटुक' रूप बनता है जिसका अर्थ मुक्तासन से है अर्थात् पीढे आदि पर कूल्हे (पुत) न लगाते हुए पैरों पर बैठना उत्कुटुकासन है।
Jain Education International
एवं विणयजुत्तस्स, सुयं अत्थं च तदुभयं ।
पुच्छमाणस्स सीसस्स, वागरिज्ज जहासुयं ॥ २३॥
-
गुरुजनों का कर्त्तव्य
कठिन शब्दार्थ - विणयजुत्तस्स विनय से युक्त हो, सुयं सूत्र को, अत्थं अर्थ को, तदुभयं तदुभय सूत्र और अर्थ दोनों को, पुच्छमाणस्स - पूछने वाले को, सीसस्स
शिष्य का, वारिज्ज
कहे, जहासुयं - यथाश्रुत - जैसा सुना वैसा ।
****
For Personal & Private Use Only
-
-
www.jainelibrary.org