Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चित्तसंभूतीय - दोनों का मिलन
कठिन शब्दार्थ - सच्चसोयप्पगडा - सत्य- शौच- प्रकर्षता से, मए - मैंने, पुराकडा पूर्व जन्म में किए, अज
आज, परिभुंजामो
सर्व प्रकार से भोगता हूँ।
भावार्थ - मुनि का कथन सुन कर ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीीं कहने लगा कि मैंने पूर्वभव में सत्य और शौच युक्त अनुष्ठान वाले कर्म किये थे उन्हें आज (इस भव में) भोग रहा हूँ, क्या चित्त तुम भी उन्हें उसी प्रकार भोग रहे हो ?
विवेचन . ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के कहने का आशय यह है कि हे चित्त! तुमने भी मेरे साथ शुभ कर्मों का उपार्जन किया था किन्तु तुम्हारे वे कर्म निष्फल हो गये? तुम्हें. उनका फल नहीं मिला। सव्वं सुचिण्णं सफलं णराणं, कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि । अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहिं, आया ममं पुण्णफलोववे ॥ १० ॥
- अच्छा किया हुआ कर्म,
किए हुए, कम्म
कर्मों के, मोक्खो
कठिन शब्दार्थ सव्वं - सभी, सुचिण्णं सफलं - सफल, णराणं - नरों का, कडाण मोक्ष, ण अत्थि - नहीं, अत्थेहि धन से, कामेहि - कामभोगों से, उत्तमेहिं आया आत्मा, ममं - मेरा, पुण्ण - पुण्य रूप, फलोववेए - फल से उपपेत । भावार्थ चित्त मुनि कहने लगे कि हे ब्रह्मदत्त ! मनुष्यों के सभी तप आदि शुभ अनुष्ठान फल सहित होते हैं। फल भोगे बिना किये हुए कर्मों से छुटकारा नहीं होता अर्थात् शुभाशुभ कर्म अवश्य ही अपना फल देते हैं। मेरी आत्मा भी उत्तम द्रव्य और मनोज्ञ शब्दादि काम-भोगों से युक्त एवं पुण्य के फलस्वरूप शुभ कर्मों के फल से युक्त थी ।
विवेचन - जो कर्म किए गए हैं उनको भोगे बिना मोक्ष छुटकारा किसी जीव का भी नहीं होता। जाणासि संभूय! महाणुभागं, महिड्डियं पुण्णफलोववेयं ।
चित्तं वि जाणाहि तहेव रायं, इड्डी जुई तस्स वि य प्पभूया ॥ ११ ॥ जाणासि जानते हो, महाणुभागं - महानुभाग, महिडियं • समझो, पुण्य फल से युक्त, जाणाहि
कठिन शब्दार्थ महर्द्धिक, पुण्णफलोववेयं इडी - ऋद्धि, जुई - द्युति ।
प्पभूया प्रचुर,
भावार्थ - हे संभूत-ब्रह्मदत्त ! आप अपने को जिस प्रकार महाप्रभावशाली, महा ऋद्धिसम्पन्न एवं पुण्य (शुभकर्मों के श्रेष्ठ) फल से युक्त जानते हैं, हे राजन्! चित्त को भी अर्थात् मुझे भी उसी प्रकार जानो, क्योंकि उसके भी अर्थात् मेरे भी ऋद्धि और दयुति प्रचूर थी ।
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उत्तम,
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