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उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवां अध्ययन
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अह तत्थ अइच्छंतं, पासइ समण-संजयं। तव-णियम-संजमधरं, सीलड़े गुण-आगरं॥५॥
कठिन शब्दार्थ - अइच्छंतं - जाते हुए, पासइ - देखता है, समण - श्रमण, संजयंसंयत को, तव णियम संजमधरं - तप, नियम और संयम को धारण करने वाले, सीलडं - शील से समृद्ध, गुण-आगरं - गुणों के आकर (खान)।
भावार्थ - इसके बाद राजकुमार ने नगर अवलोकन करते हुए तप, नियम और संयम को धारण करने वाले अठारह हजार शील के अंग रूप गुणों के धारक ज्ञानादि गुणों के भण्डार एक श्रमण संयत (जैन साधु) को राज-मार्ग पर जाते हुए देखा।
विवेचन - मृगापुत्र ने अपने राजमहल के गवाक्ष में बैठे हुए नगरावलोकन करते हुए एक जैन साधु को राजमार्ग पर जाते हुए देखा। जैन साधु के लिए प्रस्तुत गाथा में निम्न विशेषण दिये गये हैं -
१. समण-संजयं - शाक्यादि मत के भी श्रमण होते हैं अतः वैसे श्रमण से पृथक्ताविशेषता बताने के लिये यहां संजयं पद दिया है। संजयं अर्थात् संयत। संयत के दो अर्थ होते हैं - १. सम्यक् प्रकार से जीवों की यतना करने वाला और २. वीतराग देव के मार्गानुसारी श्रमण। .
२. तव-णियम-संजमधरं - तप, नियम और संयम के धारक। तप का अर्थ है - बाह्य और आभ्यंतर के भेद से बारह प्रकार का तप। नियम अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र,काल और भाव की अपेक्षा से अभिग्रह ग्रहण करना। संयम अर्थात् सतरह प्रकार के संयम को धारण करने वाला।
३. सीलडं - अठारह हजार शीलांगों - ब्रह्मचर्य के भेदों से पूर्ण। ४. गुण-आगरं - गुणों - ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप गुणों के आकर - खान के समान।
.. मृगापुत्र को जातिस्मरण ज्ञान तं पेहइ मियापुत्ते, दिट्ठीए अणिमिसाए उ। कहिं मण्णेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं मए पुरा॥६॥
कठिन शब्दार्थ - तं - उस मुनि को, पेहइ - देखता है, दिट्ठीए - दृष्टि से, अणिमिसाएअनिमेष-अपलक, कहिं - कहीं, मण्णे - मैं मानता हूं कि, एरिसं रूवं - ऐसा रूप, दिट्ठपुव्वं - पहले देखा है, मए - मैंने, पुरा - पूर्व।
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