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उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवां अध्ययन
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आत्मा रूपी सार पदार्थ की सुरक्षा जहा गेहे पलित्तम्मि, तस्स गेहस्स जो पहू। सारभंडाणि णीणेइ, असारं अवउज्झइ॥२३॥ एवं लोए पलित्तम्मि, जराए मरणेण य। अप्पाणं तारइस्सामि, तुन्भेहिं अणुमण्णिओ॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - गेहे - घर में, पलित्तम्मि - आग लगने पर, गेहस्स - घर का, पहू - प्रभु-स्वामी, सारभंडाणि - सार (मूल्यवान्) वस्तुओं को, णीणेई - बाहर निकाल लेता है, असारं - असार (मूल्यहीन) वस्तुओं को, अवउज्झइ - छोड़ देता है, जराएं - जरा (बुढ़ापा) से, मरणेण - मृत्यु से, तुन्भेहिं - आपकी, अणुमण्णिओ - आज्ञा मिलने पर, तारइस्सामि - तारूंगा। ___ भावार्थ - जिस प्रकार घर में आग लग जाने पर उस घर का जो प्रभु-स्वामी होता है वह सार वस्तु (मूल्यवान् आभूषण तथा वस्त्रादि) को बाहर निकालता है और असार वस्तुओं (फटे हुए वस्त्रादि) को छोड़ देता है इसी प्रकार बुढ़ापा और मृत्यु से जलते हुए इस लोक में आप की आज्ञा मिलने पर मैं अपनी आत्मा को तारूँगा अर्थात् यह संसार जरा और मरण रूपी अग्नि से जल रहा है इसलिए मैं अपनी आत्मा रूपी सार पदार्थ को इससे निकाल लूंगा और कामभोग रूपी असार पदार्थों को छोड़ दूंगा।
साधु जीवन की दुष्करता तं वितम्मापियरो, सामण्णं पुत्त! दुच्चरं। गुणाणं तु सहस्साइं, धारेयव्वाइं भिक्खुणा॥२५॥
कठिन शब्दार्थ - तं - उसको, अम्मापियरो - माता पिता, बिंत - कहने लगे, सामण्णं - श्रामण्य - साधु धर्म का, पुत्त - हे पुत्र! दुच्चरं - दुष्कर, गुणाणं सहस्साई - अठारह हजार गुण (अठारह हजार शीलांगरथ के भेद रूप गुण), धारेयव्वाई - धारण करने पड़ते हैं।
भावार्थ - उस मृगापुत्र को माता-पिता कहने लगे कि हे पुत्र! साधु को शील के अठारह हजार गुण तथा क्षमा आदि के अनेक गुण धारण करने पड़ते हैं। इसलिए श्रामण्य-साधु धर्म का पालन करना अत्यन्त कठिन है।
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