Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 421
________________ ३६२ उत्तराध्ययन सूत्र - बीसवाँ अध्ययन kakakakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkartat विवेचन - औद्देशिक - किसी खास साधु के लिए बनाया गया आहारादि यदि वही साधु ले तो 'आधाकर्म' और यदि दूसरा साधु ले तो 'औद्देशिक' कहलाता है। कीयगडं-क्रीतकृत-साधु के लिए खरीदा हुआ आहारादि 'क्रीतकृत' कहलाता है। इसी गाथा की टीका में टीकाकार श्री शान्त्याचार्य जी ने 'णियागं' शब्द का अर्थ - 'नियागं-नित्याग्रं नित्यपिण्डमित्यर्थः' अर्थात् नित्यपिण्ड अर्थ किया है। अतः नियाग शब्द का लम्बे काल से टीकाकारों ने 'नित्यपिण्ड' अर्थ भी किया है। इसलिए नियाग शब्द का अर्थ - नित्यपिण्ड तथा निमंत्रणपिण्ड दोनों ही समझना चाहिए। मात्र 'निमंत्रणपिण्ड' अर्थ का ही आग्रह करना प्राचीन अर्थों से विहित नहीं है। ___ दशवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन में बावन अनाचारों का वर्णन है। उसकी दूसरी गाथा में 'णियाग' शब्द आया है। उसका अर्थ रायबहादुर धनपतिसिंहजी मुर्शिदाबाद (मक्सूदाबाद) वालों की तरफ से प्रकाशित सटीक दशवैकालिक सूत्र की टीका में इस प्रकार किया है - 'णियाग' - णियागमित्यामंत्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं, नित्यं तत् तु अनानमंत्रितस्य। अर्थ - किसी का आमंत्रण स्वीकार कर उसके घर से लिया हुआ आहार-पानी तथा प्रतिदिन एक ही घर से लिया हुआ आहार-पानी आदि 'णियाग पिण्ड' (नित्य-पिण्ड) कहलाता है। ण तं अरी कंठछित्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से णाहइ मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहणो॥४॥ कठिन शब्दार्थ - अरी - शत्रु, कंठछित्ता - गला काटने वाला, अप्पणिया - अपनी, दुरप्पा - दुष्प्रवृत्तिशील दुरात्मा, णाहइ - जान पाता है, मच्चुमुहं - मृत्यु के मुख में, पच्छाणुतावेण - पश्चात्ताप से युक्त हो कर, दयाविहूणो - दया से विहीन। ____ भावार्थ - दुराचार में प्रवृत्त हुई अपनी आत्मा जितना अनर्थ करती है उतना अनर्थ तो कंठ को छेदन करने वाला शत्रु भी नहीं कर सकता। दया-रहित अर्थात् संयम-रहित यह आत्मा मृत्यु. के मुख में पहुंचा हुआ पश्चात्ताप करता हुआ इस बात को जानेगा अर्थात् अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों का स्मरण करके पश्चात्ताप करेगा। णिरट्टिया णग्गरुई उ तस्स, जे उत्तमटुं विवज्जासमेइ। इमे वि से णत्थि परे वि लोए, दुहओ वि से झिज्झइ तत्थ लोए॥४६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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