Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 420
________________ महानिग्रंथीय - सनाथता के पथ पर भी अनाथ कौन? .. ३६१ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ विवेचन - स्वप्न, लक्षण, निमित्त, कौतुहल, कुहेट विद्या एवं आम्रवद्वारों से उपार्जित पापकर्म के फलभोग के समय वह साधु शरण नहीं प्राप्त कर पाता अर्थात् उस साधु की कोई भी नरक, तिर्यंच आदि गतियों के दुःख से रक्षा नहीं कर सकता। . तमं तमेणेव उसे असीले, सया दुही विप्परियासुवेइ*। संधावइ णरगतिरिक्ख-जोणिं, मोणं विराहित्तु असाहुरूवे॥४६॥ कठिन शब्दार्थ - तमं तमेणेव उ - तमस्तम - घोर अज्ञानान्धकार के कारण, असीलेशील रहित, सया - सदा, दुही - दुःखी, विप्परियासं - विपरीत दृष्टि को, उवेइ - प्राप्त होता है, संधावई - आवागमन करता रहता है, णरगतिरिक्खजोणिं - नरक और तिर्यच योनियों में, मोणं - मुनिधर्म को, विराहित्तु - विराधना करके, असाहुरूवे - असाधु रूपद्रव्यलिंगी साधु। ... भावार्थ - साधु का वेष धारण करने वाला किन्तु भाव से असाधु रूप वह कुशीलिया साधु अत्यन्त अज्ञानान्धकार से चारित्र की विराधना करके सदैव दुःखी होता हुआ विपरीत भाव को प्राप्त होता है और नरक-तिथंच आदि दुर्गतियों में जाता है अर्थात् उत्पन्न होता है। उद्देसियं कीयगडं णियागं, ण मुंचइ किंचि अणेसणिज्ज। अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इत्तो चुए गच्छइ कह पावं॥४७॥ कठिन शब्दार्थ - उद्देसियं - औद्देशिक, कीयगडं - क्रीतकृत, णियागं - नियागनित्यपिण्ड, ण मुंचइ - नहीं छोड़ता है, अणेसणिजं - अनैषणीय आहार, अग्गी विवा - अग्नि की तरह, सव्वभक्खी - सर्व भक्षी, इत्तो चुए - यहां से च्यव कर - मर कर, कटुकरके, पावं - पाप। भावार्थ - जो साधु औद्देशिक, क्रीतकृत-खरीदा हुआ, नियागपिण्ड (नित्यपिण्ड) और अनेषणीय आहार आदि कुछ भी नहीं छोड़ता, अपितु सब को ग्रहण कर लेता है, वह अग्नि के समान सर्वभक्षी होकर यहाँ का आयुष्य पूरा करके तथा पापकर्मों को उपार्जन करके दुर्गति में चला जाता है। * पाठान्तर - विप्परियामुवेइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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