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उत्तराध्ययन सूत्र - बीसवाँ अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★adtatt
- इस गाथा में आये हुए "धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा" शब्दों से यह स्पष्ट होता है कि श्रेणिक राजा मिथ्यात्व से रहित निर्मल चित्त से धर्म में अनुरक्त बन गये। अर्थात् अनाथी मुनि के उपदेश से राजा श्रेणिक दृढ़ सम्यक्त्वी बन गये। ग्रन्थों में राजा श्रेणिक के लिए क्षायिक. सम्यक्त्वी होना लिखा है। यदि ग्रन्थों के अनुसार राजा श्रेणिक क्षायिक सम्यक्त्वी भी हुए हों तो भी आगम से कोई बाधा नहीं आती है। आगम से तो मात्र सम्यक्त्वी होना ही स्पष्ट होता है। - ऊससियरोमकूवो, काऊण य पयाहिणं। 'अभिवंदिऊण सिरसा, अइयाओ णराहिवो॥५६॥
कठिन शब्दार्थ - ऊससियरोमकूवो - उच्छ्वसित-उल्लसित रोमकूप, काऊण - करके, पयाहिणं - प्रदक्षिणा, अभिवंदिऊण - वन्दना करके, सिरसा - मस्तक से, अइयाओ - लौट गया, णराहिवो - नराधिप (राजा)।
भावार्थ - हर्ष से रोमांचित हुआ वह नराधिप-राजा श्रेणिक प्रदक्षिणा करके और मस्तक झुका कर वन्दना कर के अपने स्थान पर चला गया।
विवेचन - जब किसी भावुक आत्मा को अपूर्व उपदेशामृत अथवा अपूर्व सद्ज्ञान की प्राप्ति होती है तब उसके समस्त शरीर में रोमाञ्च हो उठता है उसका तन मन पुलकित हो जाता है, रोम रोम विकसित हो जाता है। राजा श्रेणिक ने भी जब अनाथी मुनि से सनाथअनाथ का ज्ञान प्राप्त किया, अपूर्व उपदेशामृत उसे उपलब्ध हुआ, शुद्ध धर्म की प्राप्ति हुई तो उसका शरीर प्रसन्नतावश रोमाञ्चित हो उठा। इसीलिये यहां राजा श्रेणिक के लिये 'ऊससियरोमकूवो' शब्द प्रयुक्त किया गया है।
- राजा श्रेणिक ने अनाथीमुनि के गुणों के प्रति आकर्षित होकर और उनके अन्तरंग व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जो यथार्थ शिष्टाचार किया है, वह उपर्युक्त छह गाथाओं (क्रं. ५४ से ५६ . तक) में प्रतिपादित है।
. प्रत्येक शिष्ट पुरुष का यह कर्त्तव्य होता है कि जिससे वह कुछ ज्ञान, मार्गदर्शन एवं अनुशासन प्राप्त करे या प्राप्त करना चाहे तथा जिसके गुणों से प्रभावित हो उसके प्रति शिष्ट शब्दों में कृतज्ञता प्रकट करे, उसके गुणों की प्रशंसा करे, उसका अभिनंदन करे, उसका समय व्यय किया जिसके लिए क्षमायाचना करे, उस महान् आत्मा के प्रति परमभक्ति, स्तुति, धर्मानुरक्ति, प्रदक्षिणा और वन्दना करे। यह राजा श्रेणिक के वर्तन-व्यवहार से स्पष्ट है।
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