Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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महानिग्रंथीय - उपसंहार
उपसंहार इयरो वि गुणसमिद्धो, तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य। विहग इव विप्पमुक्को, विहरइ वसुहं विगयमोहो॥६०॥ त्ति बेमि॥
कठिन शब्दार्थ - इयरो वि - अन्य भी (श्रेणिक की अपेक्षा से अनाथी मुनि भी), गुणसमिद्धो - गुणों से समृद्ध, तिगुत्तिगुत्तो - तीन गुप्तियों से गुप्त, तिदंडविरओ - तीन दण्डों से विरत, विहग इव - पक्षी की तरह, विप्पमुक्को - प्रतिबन्ध मुक्त, विहरइ - विचरण करने लगे, वसुहं - वसुधा-पृथ्वी पर, विगयमोहो - मोह रहित-मोह मुक्त (वीतराग या केवली होकर)।
भावार्थ - गुणों से समृद्ध, तीन गुप्तियों से गुप्त और तीन दण्ड से निवृत्त बने हुए अनाथी मुनि मोह (ममत्व) से रहित होकर तथा पक्षी के समान प्रतिबन्ध रहित होकर वसुधापृथ्वी पर विचरने लगे और शुद्ध संयम का पालन कर सब कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गये। ऐसा मैं कहता हूँ। . विवेचन - इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए आगमकार ने अनाथीमुनि के लिए निम्न पांच विशेषण दिये हैं - १. गुणों से समृद्ध - साधु के २७ गुणों से अथवा क्षमादि गुणों से • युक्त २. तीन गुप्तियों (मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति) से गुप्त ३. तीन दण्डों (मन दण्ड,
वचन दण्ड, काय दण्ड) से विरत ४. पक्षी के समान सभी प्रकार के प्रतिबन्धों से रहित, द्रव्य भाव परिग्रह से रहित ५. मोहमुक्त - केवली या वीतराग।
|| इति महानिग्रंथीय नामक बीसवाँ अध्ययन समाप्त।
उत्तराध्ययन सत्र
भाग १ ॥सम्पूर्ण॥
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