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महानिग्रंथीय - अनाथ भी सनाथ बन सकते हैं
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भावार्थ - महा निग्रंथों के मार्ग का अनुसरण करने से जिस फल की प्राप्ति होती है उसका वर्णन करते हैं कि चारित्र और ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर अनुत्तर-प्रधान संयम का पालन करने के पश्चात् आम्रवों से रहित होकर तथा कर्मों का सर्वथा क्षय कर के विशाल एवं सर्वोत्तम ध्रुव-शाश्वत स्थान को अर्थात् जहाँ जाकर पुनः संसार में लौटना न पड़े ऐसे मोक्ष स्थान को प्राप्त हो जाता है।
विवेचन - प्रस्तुत दो गाथाओं में अनाथीमुनि ने श्रेणिक राजा से कहा कि यदि बुद्धिमान् साधक पूर्वोक्त सुभाषित और ज्ञान गुणयुक्त अनुशासन - हितोपदेश को सुन कर तथाकथित अनाथों - आचारभ्रष्ट साधकों के समस्त मार्गों को हेय समझ कर त्याग दे और महानिग्रंथोंतीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चले तो वे पुनः सनाथ हो सकते हैं।
जो साधक सनाथ (ज्ञान दर्शन चारित्र से सम्पन्न) होता है वह सर्व कर्मों को क्षय कर शाश्वत मोक्ष स्थान को प्राप्त कर लेता है। यह सनाथ होने का सर्वोत्तम फल है। • एवुग्गदंते वि महातवोधणे, महामुणी महापइण्णे महायसे।
महाणियंठिजमिणं महासयं, से काहए महया वित्थरेणं॥५३॥
कठिन शब्दार्थ - उम्गदंते - उग्र-कर्म शत्रुओं को जीतने में उदग्र एवं शांत, महातवोधणेमहातपोधन, महामुणी - महामुनि, महापइण्णे - महा प्रतिज्ञ, महाबसे - महायशस्वी, महाणियंठिनं - महानिग्रंथीय, महासुयं - महाश्रुत का, काहए - कथन किया, महवा - बहुत. (बड़े), विस्वस्थ - विस्तार से।
भावार्थ - कर्म शत्रुओं का उग्र रूप से दमन करने वाले महान् तपस्वी, महा प्रतिज्ञा - दृढ़ प्रतिज्ञा वाले, महा यशस्वी उन महामुनि ने इस महा-निग्रंथों के लिए हितकारी महानिर्ग्रन्थीय नामक महाश्रुत अध्ययन का बहुत विस्तार के साथ महाराज श्रेणिक के सामने इस प्रकार कथन किया।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में महानिग्रंधीय अध्ययन के प्रतिपादक अनाथीमुनि के छह विशेषण दिये गये हैं - १. उन २. दान्त ३. महातपोधन ४. महामुनि ५. महाप्रतिज्ञ और ६. महायशस्वी।
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