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महानिग्रंथीय - सनाथता के पथ पर भी अनाथ कौन?
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कठिन शब्दार्थ - णिरट्ठिया - निरर्थक, णग्गरुई - नग्नरुचि - साधुत्व में अभिरुचि, उत्तमढें - उत्तमार्थ, विवजासमेइ - विपरीत दृष्टि रखता है, दुहओ वि - दोनों ओर से, झिज्झइ - भ्रष्ट (नष्ट) हो जाता है।
भावार्थ - ऐसे द्रव्यलिंगी मुनि की नग्नरुचि - नग्न अर्थात् संयम में रुचि रखना निरर्थक है जो उत्तम अर्थ में भी विपरीत भाव रखता है अर्थात् सादाचार को दुराचार और दुराचार को सदाचार मानता है उस आत्मा के लिए यह लोक और परलोक दोनों भी नहीं है अर्थात् दोनों बिगड़ जाते हैं इस प्रकार उभय-लोक के अभाव में वह लोक में दोनों प्रकार से चिन्तित होकर क्षीण होता है अर्थात् इस लोक में तो केशलुंचन आदि क्रियाओं से क्लेशित होता है और परलोक में नरक-तिर्यंच आदि गतियों में दुःख भोगता है।
एमेवऽहाछंद कुसील-रूवे, मग्गं विराहित्तु जिणुत्तमाणं। कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, णिरट्टसोया परियावमेइ॥५०॥
कठिन शब्दार्थ - अहाछंद - स्वच्छन्द, कुसीलरूवे - कुशील वेश में (भ्रष्ट साधु), मगं - मार्ग की, विराहित्तु - विराधना करके, जिणुत्तमाणं - जिनोत्तम-जिनेन्द्र भगवान् के, कुररी विवा - कुररी (गीध) पक्षिणी की तरह, भोगरसाणुगिद्धा - भोग रसों में आसक्त होकर, णिरट्ठसोया - निरर्थक शोक करने वाली, परियावमेइ - परिताप को प्राप्त होता है।
भावार्थ - इस प्रकार स्वच्छन्दाचारी और कुशीलिया साधु जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम मार्ग की विराधना करके भोगरस में अर्थात् मांस के टुकड़े में आसक्त बनी हुई निरर्थक शोक करने वाली कुररी-पक्षिणी के समान भोगों में आसक्त बन कर परिताप को प्राप्त होता है-पश्चात्ताप करता है।
विवेचन - उपर्युक्त १३ गाथाओं (गाथा ३८ से ५० तक) में अनाथीमुनि ने उन साधकों का वर्णन किया है जो सनाथता के पथ को अंगीकार करके भी अपनी दुष्प्रवृत्ति के कारण अनाथ बन जाते हैं। अनाथता के १३ प्रकार इस प्रकार है - .१. निग्रंथ धर्म अंगीकार करके शिथिल एवं परीषह सहन करने में कायर। २. दीक्षा अंगीकार कर महाव्रतों के पालन में प्रमादी, अजितेन्द्रिय और रसों में आसक्त। ३. पांच समितियों के पालन में उपयोग रहित। ४. व्रतों में अस्थिर, तप नियमों से भ्रष्ट, केवल मुण्डरुचि।
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