Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 418
________________ महानिर्ग्रथीय असार, पोल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा । राढामणी वेरुलियप्पगासें, अमहग्घए होइ हु जाणएसु ॥ ४२ ॥ कठिन शब्दार्थ - पोल्लेव पोली (खाली), मुट्ठी - मुष्टि, असारे अयंतिए - अयंत्रित -अनियमित, कूडकहावणे - कूटकार्षापण, राढामणी कांच की मणि, वेरुलियप्पगासे - वैडूर्यमणि की तरह प्रकाशित, अमहग्घए वाले परीक्षकों की दृष्टि में। मूल्यहीन, जाणएसु जानने भावार्थ - जिस प्रकार पोली (खाली) मुष्टि-मुट्ठी असार है और जिस प्रकार कूटकार्षापणखोटा सिक्का असार है और जैसे कांच का टुकड़ा वैडूर्यमणि के समान प्रकाश करने वाला होने पर भी जानकार पुरुषों के सामने निश्चय ही वह अल्प मूल्य वाला हो जाता है। इसी प्रकार अनियमित अर्थात् द्रव्य लिंगी साधु भी विवेकी पुरुषों में प्रशंसनीय नहीं होता । विवेचन जो साधक व्रतों में अस्थिर है। तप, त्याग, नियम- प्रत्याख्यान से विचलित हो जाता है वह केवल द्रव्य मुण्डित है अंदर से खोखला है, ऐसा साधक संसार पारगामी नहीं हो सकता। - Jain Education International - सनाथता के पथ पर भी अनाथ कौन ? - - धारण • कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय बूहइत्ता । असंजए संजय - लप्पमाणे, विणिग्घाय-मागच्छइ से चिरं पि ॥ ४३ ॥ कठिन शब्दार्थ - कुसीललिंगं - कुशीलों - आचार भ्रष्टों का वेष धारइत्ता करके, इंसिज्झयं ऋषि ध्वज (रजोहरणादि मुनि चिह्न), जीविय जीवन - आजीविका का, बूहइत्ता - पोषण करता हुआ, असंजए - असंयत, संजय - लप्पमाणे - संयत कहलाता है, विणिग्घायं विनिघात आत्मघात अथवा जन्म मरण रूप विनाश को, आगच्छड़ प्राप्त होता है। - For Personal & Private Use Only · - - ३८६ **** - भावार्थ - इस मनुष्य जन्म में कुशीलिये (पासत्थे) आदि का लिंग धारण करके तथा ऋषिध्वज - रजोहरण आदि मुनि के बाह्य चिह्नों को धारण करके उनके द्वारा अपनी आजीविका का पोषण करता हुआ अर्थात् असंयमपूर्ण जीवन व्यतीत करता हुआ और असंयत होते हुए भी अपने आपको संयत बतलाने वाला वह द्रव्यलिंगी साधु बहुत काल तक विनिघात - विनाश को प्राप्त होता है अर्थात् नरक आदि दुर्गतियों में दुःख भोगता रहता है। www.jainelibrary.org

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