Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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- उत्तराध्ययन सूत्र - बीसवाँ अध्ययन ***kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkki
आउत्तया जस्स य पत्थि काइ, इरीयाए भासाए तहेसणाए।
आयाणणिक्खेव-दुगुंछणाए, ण वीरजायं अणुजाइ मग्गं॥४०॥ । कठिन शब्दार्थ - आउत्तया - उपयोगयुक्तता-यतना, जस्स - जिसकी, ण अत्थि - .. नही है, काइ - कुछ भी, इरीयाए - ईर्यासमिति में, भासाए - भाषासमिति में, तह - तथा; एसणाए - एषणा समिति में, आयाणणिक्खेव दुगुंछणाए - आदान भण्डमात्र निक्षेपणा समिति, वीरजायं - वीरयात-जिस पर भगवान् महावीर अथवा वीर पुरुष चले हैं, ण अणुजाइअनुगमन नहीं कर सकता।
भावार्थ - ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भंडमान-निक्षेपणा समिति तथा उच्चार-प्रस्रवण खेल-सिंघाण-जल्ल-परिस्थापनिका समिति, इन पाँच समितियों में जिस साधु का कुछ भी उपयोग नहीं है वह वीर भगवान् तथा शूरवीर पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता है अर्थात् संयम-मार्ग का यथावत् पालन नहीं कर सकता है।
विवेचन - जो शक्तिशाली धीर-वीर पुरुष हैं वे ही ईर्यादि पांचों समितियों का यथाविधि पालन करके वीर मार्ग का अनुगमन करते हैं इससे विपरीत जो कायर हैं ईर्यादि समितियों के पालन से कतराता है वह ‘ण वीरजायं अणुजाइ मग्गं' - वीरमार्ग का अनुयायी नहीं हो सकता।
चिरं पि से मुंडरुई भवित्ता, अथिरव्वए तव णियमेहिं भट्टे। चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता, ण पारए होइ हु संपराए॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - चिरं पि - बहुत काल तक, मुंडरुई - मुण्ड रुचि, भवित्ता - होकर, अथिरव्यए - अस्थिरव्रती, तव णियमेहिं - तप और नियमों से, भट्टे - भ्रष्ट, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, किलेसइत्ता - क्लेशित करके, ण पारए होइ - पार नहीं हो सकता, संपराए - संसार से।
भावार्थ - जो साधु बहुत काल तक मुण्डरुचि होकर, अस्थिर व्रत वाला और तप और नियमों से भ्रष्ट है अर्थात् जो ग्रहण किये हुए पाँच महाव्रतों का सम्यक् पालन नहीं करता और जो केवल मुण्डरुचि है अर्थात् जिसने सिर मुंडा कर वेष तो साधु का पहन लिया है, किन्तु जो भाव से मुंडित नहीं हुआ है वह साधु बहुत काल तक अपनी आत्मा को क्लेशित करके भी निश्चय से संसार से पार नहीं हो सकता।
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