Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 399
________________ ३७० उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवां अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ कठिन शब्दार्थ - णाणेण - ज्ञान से, चरणेण - चरित्र से, दंसणेण - दर्शन से, तवेण - तप से, भावणाहिं - भावनाओं से, सुद्धाहिं - शुद्ध, सम्मं - सम्यक्, भावित्तु - भावित करके, अप्पयं - अपनी आत्मा को, बहुयाणि - बहुत, वासाणि - वर्षों तक, .. सामण्णं - साधुता का, अणुपालिया - पालन करके, मासिएण भत्तेण - मासिक भक्त से, सिद्धिं - सिद्धि गति को, पत्तो - प्राप्त हुए, अणुत्तरं - अनुत्तर-प्रधान। भावार्थ - इस प्रकार ज्ञान से, दर्शन से, चारित्र से और तप से तथा शुद्ध भावनाओं से सम्यक् प्रकार से अपनी आत्मा को भावित करके बहुत वर्षों तक श्रामन्य-श्रमणपर्याय का पालन करके और मासिक भक्त में अर्थात् एक मास का संथारा करके वे मृगापुत्र अनुत्तर-सर्वश्रेष्ठ सिद्धि गति को प्राप्त हुए। विवेचन - मृगापुत्र को किन साधनों (उपायों) से कैसी गति प्राप्त हुई, इसका वर्णन प्रस्तुत दो गाथाओं में किया गया है। मृगापुत्र को अनुत्तर यानी सर्वोत्कृष्ट सिद्धि गति-मुक्ति निम्न साधनों से प्राप्त हुई - १. मतिश्रुत आदि सम्यग्ज्ञान २. सम्यग्दर्शन ३. द्वादशविध तप ४. पांच महाव्रत की २५ भावनाएं ५. शुद्ध अर्थात् निदान आदि दोषों से रहित अनित्य आदि बारह भावनाएं ६. बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन ७. मासिक भक्त प्रत्याख्यान से समाधि मरण। उपसंहार - निर्गंथ धर्म के आचरण का उपदेश एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटेति भोगेसु, मियापुत्ते जहामिसी॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - संबुद्धा - संबुद्ध - जिनकी प्रज्ञा सम्यक् है वे ज्ञानादि संपन्न, पंडियापण्डित, पवियक्खणा - अति विचक्षण, विणियहति - विनिवृत्त होते हैं, भोगेसु - भोगों से, जहा - जैसे, मियापुत्ते इसी - मृगापुत्र ऋषि। ___ भावार्थ - बोध को प्राप्त हुए विचक्षण पंडित पुरुष भोगों से निवृत्त हो जाते हैं और इसी प्रकार करते हैं जैसे मृगापुत्र ऋषीश्वर ने किया। महापभावस्स महाजसस्स, मियाइपुत्तस्स णिसम्म भासियं। तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं, गइप्पहाणं च तिलोगविस्सुयं ॥८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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