Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मृगापुत्रीय - उपसंहार - निर्ग्रन्थ धर्म के आचरण का उपदेश ३७१ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
कठिन शब्दार्थ - महापभावस्स - महाप्रभावशाली, महाजसस्स - महायशस्वी, . मियाइपुत्तस्स - मृगापुत्र के, णिसम्म - सुन कर, भासियं - कथन को, तवप्पहाणं - तपप्रधान, चरियं - चारित्र, उत्तमं - उत्तम, गइप्पहाणं - गति से प्रधान, तिलोगविस्सुयं - त्रिलोक विश्रुत (प्रसिद्ध)।
भावार्थ - महा प्रभावशाली और महायशस्वी मृगापुत्र के भाषित-संसार को दुःखरूप बताने वाले कथन को सुन कर तप प्रधान उत्तम चारित्र और तीन लोक में विख्यात, प्रधान गति (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र के संभाषण को आगमविहित एवं स्वयं अनुभूत होने के कारण महाप्रभावशाली तथा तप संयम एवं चारित्र की बाह्य अंतरंग विशुद्धि के कारण महायशस्वी होने से प्रामाणिक एवं सर्वथा उपादेय माना, इसी प्रकार चारित्र भी तपःप्रधान एवं उत्कृष्ट होने से मोक्षगतिदायक एवं त्रिलोकविश्रुत माना है।
वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं, ममत्तबंधं च महाभयावहं। ... सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं, धारेज णिव्वाण गुणावहं महं॥ त्ति बेमि॥६६॥
कठिन शब्दार्थ - वियाणिया - जान कर, दुक्खविवद्धणं - दुःख बढ़ाने वाला, धणंधन को, ममत्तबंधं - ममत्व बंधन को, महाभयावहं - महाभयंकर, सुहावहं - सुखावह, धम्मधुरं - धर्म धुरा को, धारेज - धारण करो, णिव्वाण गुणावहं - निर्वाण के गुणों को प्राप्त कराने वाली, महं - महान्।
भावार्थ - हे भव्यपुरुषो! धन को दुःख बढ़ाने वाला, ममत्व रूप बन्धन का कारण तथा महाभय को प्राप्त कराने वाला जान कर सुखों को देने वाली, अनुत्तर-प्रधान एवं महान् ज्ञानदर्शनादि गुणों को और मोक्ष को देने वाली धर्म रूपी धुरा को धारण करो अर्थात् धर्म में पुरुषार्थ करो॥ तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ।
- विवेचन - उपरोक्त गाथाओं में आगमकार ने अध्ययन का उपसंहार करते हुए मृगापुत्र के आदर्श चरित्र से प्रेरणा लेकर साधु साध्वियों के लिए कर्तव्य धर्म का निर्देश किया है।
|| इति मृगापुत्रीय नामक उन्नीसवाँ अध्ययन समाप्त॥
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