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मृगापुत्रीय - महर्षि मृगापुत्र की सिद्धि kakakkakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk लगाव से रहित अर्थात् तपोऽनुष्ठान, संयम पालन आदि से इहलोक में प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा, पारस्परिक सहायता, पदवी, सत्ता, प्रभुता आदि की तथा ऐहलौकिक सुखों आदि की किसी प्रकार की अणुमात्र भी इच्छा न रखने वाला। परलोक से अनिश्रित का आशय है - पारलौकिक सुखों या स्वर्गादि में प्राप्त होने वाली भोग सामग्री, देवांगना आदि की कामना से रहित अर्थात् तप, संयम या चारित्र के अनुकूल सभी धर्मक्रियाएं इहलोक परलोक की इच्छा रहित एक मात्र कर्म क्षय के लिए ही थी।
अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवो। अज्झप्पज्झाण-जोगेहिं, पसत्थ-दमसासणो॥४॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पसत्थेहिं - अप्रशस्त, दारेहिं - द्वारों से, पिहियासवो - पिहितास्रवआसत्रों का निरोध, अज्झप्पज्झाणजोगेहिं - अध्यात्म ध्यान योगों से, पसत्थदमसासणो - प्रशस्त दम (संयम) और शासन में लीन।
भावार्थ - मृगापुत्र सभी अप्रशस्त द्वारों से निवृत्त हो गए और उसने सभी प्रकार से आस्रवों का निरोध कर दिया तथा आध्यात्मिक शुभ ध्यान के योग से प्रशस्त संयमी और शास्त्रों के ज्ञाता हुए।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र के आंतरिक विशुद्ध आचार का कथन किया गया है। मृगापुत्र ने एक ओर से अप्रशस्त योगों-मन, वचन, काया के व्यापारों द्वारा आने वाले कर्मों को रोक लिया था, दूसरी ओर से संवरयुक्त होकर अध्यात्म ध्यान में ही उन्होंने अपने मन, वचन, काया के योगों को लगा दिया जिससे उनका उपशम (दम) और शासन - जिनागमों की शिक्षा या तत्त्वज्ञान भी प्रशस्त हो गया।
महर्षि मृगापुत्र की सिद्धि एवं णाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य। भावणाहिं च सुद्धाहिं, सम्मं भावित्तु अप्पयं॥६५॥ बहुयाणि उ वासाणि, सामण्ण-मणुपालिया। मासिएण उ भत्तेण, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥६६॥
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