Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - बीसवाँ अध्ययन kakkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk अनाथता थी। इतना सब कुछ होते हुए भी दुःखों मे मैं मुक्त नहीं हो सका, फिर मैं सनाथ कैसे? इसीलिये मैंने अपने आपको अनाथ कहा था।
गाथा २६ में आए हुए ‘मए णायमणायं वा, सा बाला णेव भुंजई' पाठ से ऐसा ध्वनित होता है कि - अनाथी मुनि को कोई विशिष्ट ज्ञान (अवधिज्ञान आदि) था। क्योंकि अज्ञात बात को जानना विशिष्ट ज्ञान के बिना संभव नहीं है। ऐसा बहुश्रुत गुरुदेव फरमाया करते थे।
दीक्षा का संकल्प तओऽहं एवमाहंसु, दुक्खमा हु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउं जे, संसारम्मि अणंतए॥३१॥
कठिन शब्दार्थ - एवमाहंसु - इस प्रकार कहा, दुक्खमा - दुःसह, अणुभविउं - अनुभव करना होता है, संसारम्मि अणंतए - अनन्त संसार में।
भावार्थ - इसके बाद (अनेक उपचार करने पर भी जब मेरा रोग शान्त न हुआ तब) मैं इस प्रकार विचार करने लगा कि इस अनन्त संसार में ऐसी दुस्सह वेदना बार-बार जो इस आत्मा को सहन करनी पड़ती है।
सई च जइ मुच्चेजा, वेयणा विउला इओ।
खंतो दंतो णिरारंभो, पव्वइए अणगारियं ॥३२॥ ___ कठिन शब्दार्थ - सई - एक बार, जइ - यदि, मुच्चेज्जा - मुक्त हो जाऊं, खंतो - क्षान्त, दंतो - दान्त, णिरारंभो - आरंभ रहित होकर, पव्वइए - प्रव्रजित, अणगारियं - अनगारवृत्ति में।
भावार्थ - यदि मैं एक बार इस विपुल असह्य वेदना से छूट जाऊँ तो क्षमावान् इन्द्रियों का दमन करने वाला और आरम्भ रहित होकर अनगार वृत्ति को धारण करलूं अर्थात् साधु बन कर वेदना के कारणभूत कर्मों का समूल नाश करने के लिए प्रयत्न करूँ, जिससे फिर कभी ऐसी वेदना का अनुभव ही नहीं करना पड़े।
विवेचन - मुनिश्री ने विचार किया कि दुःखे का मूल कारण अशुभ कर्म है। जब तक इन अशुभकर्मों की निर्जरा नहीं होती तब तक लाख प्रयत्न करने पर भी जीव को सुख और शांति की प्राप्ति नहीं होती। अतः दुःख निवृत्ति के लिये एक ओर पुराने अशुभ कर्मों के क्षय के
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