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महानिर्ग्रथीय
अण्णं पाणं च हाणं च, गंधमल्ल - विलेवणं ।
मए णायमणायं वा, सा बाला णेव भुंजइ ॥ २६ ॥ खणं पि मे महाराय ! पासाओ वि ण फिट्ट ।
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णय दुक्खा विमोएइ, एसा मज्झ अणाहया ॥ ३० ॥ कठिन शब्दार्थ - भारिया भार्या (पत्नी), अणुरत्ता अनुव्रता - पतिव्रता, अंसुपुण्णेहिं णयणेहिं - अश्रुपूर्ण नेत्रों से, उरं परिसिंचाइ - भिगोती (सिंचती ) रहती थी ।
अन्न, पाणं
स्नान, च
और, गंधमल्ल - विलेवणं
अण्ण पान, ण्हाणं गन्ध, माल्य और विलेपन का, णायमणायं
जाने या अनजाने (प्रत्यक्ष या परोक्ष) में, सा बाला- वह बाला ( नवयुवती), णेव भुंजड़ - उपभोग नहीं करती थी ।
क्षण भर भी, पासाओ - मेरे पास से, ण फिट्टइ - दूर नहीं होती ।
खणंपि भावार्थ
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हे महाराज! मुझ पर अत्यन्त अनुराग रखने वाली, अनुव्रता - पतिव्रता मेरी भार्या - स्त्री आंसुओं से भरे हुए नेत्रों से मेरी छाती को सिंचती थी अर्थात् मुझे दुःखी देख कर वह मेरे पास बैठी हुई निरन्तर आंसू गिराती थी ।
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अनाथता - सनाथता का स्पष्टीकरण
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वह मेरी स्त्री मेरे जानते हुए अथवा न जानते हुए अन्न, पानी स्नान और सुगन्धित तैलादि : तथा माला विलेपन आदि किसी भी पदार्थ का सेवन नहीं करती थी ।
अनुरक्ता, अणुव्वया वक्षस्थल (छाती) को,
हे महाराज ! और अधिक तो क्या, वह मेरी स्त्री एक क्षण भर के लिए भी मेरे पास से दूर नहीं होती थी इतना करते हुए भी वह मुझे दुःख से छुड़ाने में समर्थ न हो सकी, यह मेरी अनाथता है।
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विवेचन उपर्युक्त गाथाओं में अनाथी मुनि ने राजा श्रेणिक से अपनी अनाथता की आप बीती सुनाते हुए कहा कि मेरी आंखों में एक बार भयंकर तीव्र वेदना उत्पन्न हुई। उस पीड़ा के शमन के लिए बड़े-बड़े नामी वैद्य, चिकित्सक, मंत्र-तंत्रवादी एवं अन्य सभी उपचार करने वालों को मेरे पिता ने बुला कर उनसे उपचार करवाया किंतु उन उपचारों से भी मेरी पीड़ा शान्त न हुई, यह मेरी अनाथता थी । मेरे पिता, माता, बड़े छोटे भाई बहन, मेरी धर्मपत्नी सब मेरी परिचर्या में जुटे रहते किंतु वे भी मुझे किसी प्रकार से दुःख मुक्त न कर सके, यह मेरी
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