Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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महानिर्ग्रथीय - वेदना से मुक्ति और दीक्षा
लिए निर्जरा का मार्ग और दूसरी ओर हिंसादि आस्रवों को रोकने के लिए संवर का मार्ग अपनाना जरूरी है। इसी उत्कृष्ट शुद्ध चिंतन के संदर्भ में अनाथी मुनि ने इस पीड़ा से मुक्त होने पर क्षान्त, दान्त, निरारम्भ अनगार बनने का संकल्प लिया ।
वेदना से मुक्ति और दीक्षा
एवं च चिंतइत्ताणं, पसुत्तो मि णराहिवा ! ।
परियत्तंतीए राईए, वेयणा मे खयं गया ॥ ३३ ॥
कठिन शब्दार्थ - चिंतताणं - चिन्तन करके, पसुत्तोमि- मैं सो गया, परियत्तंतीएपरिवर्तित होने (बीतने) पर, राईए - रात्रि, खयं गया - क्षीण हो गई।
भावार्थ - नराधिप हे राजन्! इस प्रकार विचार करके मैं सो गया । ज्यों-ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई त्यों-त्यों मेरी वेदना भी क्षीण होती गई और मैं नीरोग हो गया। तओ कल्ले पभायम्मि, आपुच्छित्ताण बंधवे । खतो दंतो णिरारंभो, पव्वइओ अणगारियं ॥ ३४ ॥ कठिन शब्दार्थ - कल्ले - दूसरे दिन, पभायम्मि पूछ कर, बंधवे - बंधुजनों को ।
प्रभातकाल में, आपुच्छित्ताण -
भावार्थ- इसके बाद दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही अपने माता-पिता आदि तथा बन्धुजनों को पूछ कर क्षमावान् इन्द्रियों का दमन करने वाला और आरम्भ-रहित हो कर मैंने अनगारवृत्ति, प्रव्रज्या धारण कर ली ।
तोऽहं णाहो जाओ, अप्पणो य परस्स य ।
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सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाणं थावराण य ॥ ३५ ॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पणो अपना, परस्स- दूसरों का, सव्वेसिं चेव भूयाणं सभी प्राणियों का, तसाणं - त्रसों, थावराणं - स्थावरों ।
भावार्थ - दीक्षा अंगीकार करने पर मैं अपना और दूसरों का एवं त्रस और स्थावर सभी भूतों का अर्थात् जीवों का नाथ हो गया हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में बताया है कि अनाथी मुनि दीक्षा अंगीकार करते ही कहते हैं "तो हं णाहो जाओ" मैं स्वयं नाथ बन गया। वास्तव में जो सांसारिक विषय भोगों का त्याग
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