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उत्तराध्ययन सूत्र - बीसवाँ अध्ययन **************kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk
कठिन शब्दार्थ - परिंदो - नरेन्द्र, सुसंभंतो - सम्भ्रान्त :- सशंयाकुल, सुविम्हिओ - अधिक विस्मित, वयणं - वचनों को, अस्सुयपुव्वं - अश्रुतपूर्व, साहुणा - मुनि के द्वारा, विम्हयण्णिओ - पहले से विस्मित।
भावार्थ - इस प्रकार विस्मित बना हुआ एवं पुनः साधु द्वारा कहे हुए अश्रुत-पूर्व (पहले कभी न सुने हुए) वचन सुन कर वह नरेन्द्र-राजा सुसम्भ्रान्त एवं व्याकुल और सुविस्मितअत्यन्त विस्मित बन गया।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में राजा के विस्मित होने का उल्लेख इसलिए किया गया है कि राजा ने आज दिन तक किसी के मुख से यह नहीं सुना था कि 'तू अनाथ है' किंतु साधु के मुख से ऐसा वचन सुनकर उसे सहसा झटका लगा। इस प्रकार राजा पहले ही मुनि के रूप
आदि को देख कर आश्चर्य में पड़ा हुआ था फिर मुनि द्वारा उसे अनाथ बताने के कथनं ने तो उसे और भी आश्चर्य में डाल दिया। अतः राजा श्रेणिक आगे की गाथाओं में स्वयं के अनाथ नहीं होने का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करते हैं -
मैं अनाथ कैसे? अस्सा हत्थी मणुस्सा मे, पुरं अंतेउरं च मे। भुंजामि माणुस्से भोगे, आणा इस्सरियं च मे॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - अस्सा - अश्व, हत्थी - हाथी, मणुस्सा - मनुष्य, पुरं - नगर, अंतेउरं - अन्तःपुर, भुंजामि - भोगता हूं, माणुस्से भोगे - मनुष्य संबंधी भोगों को, आणाआज्ञा, इस्सरियं - ऐश्वर्य। - भावार्थ - राजा श्रेणिक मुनि से कहने लगा कि हे मुने! मेरे पास हाथी, अश्व-घोड़े और मनुष्य हैं, नगर और अन्तःपुर भी मेरे पास हैं तथा मनुष्य सम्बन्धी भोगों को मैं भोगता हूँ। मेरी आज्ञा चलती है और ऐश्वर्य-मेरे पास द्रव्यादि समृद्धि है।
एरिसे संपयग्गम्मि, सव्वकाम-समप्पिए। कहं अणाहो भवइ, मा हु भंते! मुसं वए॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - एरिसे - इस प्रकार की, संपयग्गम्मि - श्रेष्ठ संपदा के होते, सव्वकामसमप्पिए - सभी कामभोग समर्पित - प्राप्त, मा हु वए - नहीं बोले, मुसं - मृषा।
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