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मृगापुत्रीय - तृतीय महाव्रत की दुष्करता
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विवेचन - अठारह हजार शीलांगरथ के भेदों का वर्णन संघ से प्रकाशित दशवैकालिक सूत्र के ८वें अध्ययन की गाथा ४१ के विवेचन में बताया गया है। जिज्ञासुओं को वहां से जान लेना चाहिए।
प्रथम महाव्रत की दुष्करता समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्करं॥२६॥ 'कठिन शब्दार्थ - समया - समता-समभाव रखना, सव्वभूएसु - सभी जीवों पर, सत्तुमित्तेसु - शत्रु हो या मित्र पर, जगे - संसार में, पाणाइवाय विरई - प्राणातिपात से विरत होना, दुक्करं - दुष्कर। - भावार्थ - हे पुत्र! जीवनपर्यंत जगत्-संसार में सभी प्राणियों पर चाहे शत्रु हो या मित्र पर समभाव रखना तथा प्राणातिपात (हिंसा) से सर्वथा निवृत्त होना (पहले महाव्रत का पालन करना) भी अत्यन्त कठिन हैं।
.. द्वितीय महाव्रत की दुष्करता णिच्चकालऽप्पमत्तेणं, मुसावाय-विवज्जणं। भासियव्वं हियं सच्चं, णिच्चाउत्तेण दुक्करं॥२७॥
कठिन शब्दार्थ - णिच्चकाल - सदैव, अप्पमत्तेणं - अप्रमत्त रह कर, मुसावाय विवज्जणं - मृषावाद का त्याग, भासियव्वं - बोलना, हियं - हितकारी, सच्चं - सत्य, णिच्चाउत्तेण - सतत उपयोग के साथ।
भावार्थ - सदैव के लिए प्रमाद रहित होकर मृषावाद का त्याग और सदा उपयोग रख कर हितकारी सत्य वचन बोलना (दूसरे महाव्रत का पालन करना) बड़ा दुष्कर है।
तृतीय महाव्रत की दुष्करता दंत-सोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं। अणवज्जेसणिज्जस्स, गिण्हणा वि दुक्करं ॥२८॥ कठिन शब्दार्थ - दंत सोहणमाइस्स - दंतशोधन आदि के ग्रहण का, अदत्तस्स -
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