Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 381
________________ ३५२ उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवां अध्ययन . ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ अनुपशांत के लिए संयम पालना दुष्कर है भुंज माणुस्सए भोए, पंच लक्खणए तुमं। भुत्त भोगी तओ जाया! पच्छा धम्मं चरिस्ससि ॥४४॥ कठिन शब्दार्थ - भुंज - भोगो, माणुस्सए - मनुष्य संबंधी, भोए - भोगों को, पंचलक्खणए - पांच लक्षण - शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श वाले, भुत्तभोगी - भुक्त भोगी होकर, जाया - हे पुत्र! पच्छा - बाद में, धम्मं - धर्म की, चरिस्ससि - आचरण करना। भावार्थ - मृगापुत्र के माता-पिता उसे कहते हैं कि तरुण अवस्था में संयम का पालन करना बड़ा कठिन है इसलिए हे पुत्र! अभी तो तुम शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श रूप पाँच लक्षण वाले मनुष्य सम्बन्धी भोगों को भोगो, इसके बाद भुक्तभोगी होकर वृद्धावस्था में धर्म का पालन करना। विवेचन - माता पिता प्रस्तुत गाथा में मृगापुत्र को सुझाव देते हैं कि यदि इतनी दुष्करताओं और कठिनाइयों के बावजूद भी तेरी इच्छा श्रमण धर्म के पालन की हो तो पहले पंचेन्द्रिय विषय भोगों को भोग का फिर साधु बन जाना। नरकादि गतियों के दुःखों का वर्णन सो बिंत अम्मापियरो, एवमेयं जहाफुडं। . इहलोगे णिप्पिवासस्स, णत्थि किंचि वि दुक्करं॥४५॥ कठिन शब्दार्थ - बिंत - बोला, अम्मापियरो - माता पिता से, जहाफुडं - जैसा कहा है, णिप्पिवासस्स - तृष्णा रहित, किंचि वि - कुछ भी, णत्थि - नहीं, दुक्करं - दुष्कर। ... भावार्थ - वह मृगापुत्र कहने लगा कि - हे माता पिताओ! संयम का पालन करना ऐसा ही कठिन है जैसा आपने कहा है किन्तु इस लोक में अर्थात् स्वजन सम्बन्धी परिग्रह तथा काम-भोगों में निःस्पृह बने हुए पुरुष के लिये कुछ भी कठिन नहीं है। सारीरमाणसा चेव, वेयणाओ अणंतसो। मए सोढाओ भीमाओ, असई दुक्ख-भयाणि य॥४६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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