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मृगापुत्रीय - मृगचर्या और साधुचर्या
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iiiiiiiiiiii एगभूओ अरण्णे वा, जहा उ चरइ मिगो। एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य॥७॥
कठिन शब्दार्थ - एगब्भूओ - अकेला ही, चरइ - विचरता है, मिगो - मृग, चरिस्सामि - आचरण करूंगा।।
भावार्थ - जैसे अरण्य (जंगल) में मृग अकेला ही विचरता है, वैसे ही मैं भी संयम और तप से युक्त होकर धर्म का पालन करूँगा।
जया मिगस्स आयंको, महारणम्मि जायइ। अच्छंतं रुक्खमूलम्मि, को णं ताहे तिगिच्छड़॥७॥.
कठिन शब्दार्थ - मिगस्स - मृग के, आयंको - आतंक - शीघ्र घातक रोग, महारण्णम्मि- महारण्य में, जायइ - उत्पन्न हो जाता है, अच्छंतं - बैठे हुए की, रुक्खमूलम्मिवृक्ष के नीचे, को णं - कौन, ताहे - तब, तिगिच्छइ - चिकित्सा करता है। .. भावार्थ - भयानक वन में जब मृग के कोई रोग हो जाता है तब उस रोग से पीड़ित होकर किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस मृग की कौन चिकित्सा करता है? अर्थात् कोई नहीं करता है। .
- विवेचन - पीड़ा के तीन भेद हैं - आधि, व्याधि और उपाधि। मानसिक दुःख को आधि और शारीरिक दुःख को व्याधि तथा बाहरी निमित्तों से होने वाले दुःख को उपाधि कहते हैं। व्याधि के दो भेद हैं - रोग और आतंक। ज्वर आदि को रोग कहते हैं। रोग थोड़े समय में भी उपशांत हो सकता है और लम्बे समय तक भी चल सकता है। जैसे कि - इस अवसर्पिणी काल के चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार के शरीर में दीक्षा लेने के बाद कण्डू (खुजली), ज्वर, कास (खांसी), श्वास, स्वर भंग, आँख की पीड़ा और पेट की पीड़ा, ये सात रोग हो गये थे सो सात सौ वर्ष रहे और मुनि ने समभाव पूर्वक सहन किये। “सद्योघाती आतंक" ऐसा रोग जिसके होने पर प्राणी की थोड़े ही समय में अर्थात् दो चार दिन में मृत्यु हो जाय, उसे 'आतंक' कहते हैं। जैसे कि - प्लेग - गांठों की बीमारी, हैजा - एक साथ दस्ते तथा उल्टीये होना, संवत् १९७४ में प्लेग की बीमारी हुई थी जिसमें बहुत से मनुष्यों की मृत्यु हो गई थी। गांव के गांव खाली हो गये थे।
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