Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 393
________________ २६४ उत्तराध्ययन सूत्र - उन्नीसवा अध्ययन **************************tikatttttttttttttaraittirrittitute को वा से ओसहं देइ, को वा से पुच्छइ सुहं। को से भत्तं वा पाणं वा, आहरित्तु पणामए॥५०॥ कठिन शब्दार्थ - ओसहं - औषधि, देइ - देता है, पुच्छइ - पूछता है, सुहं - सुखसाता, भत्तं - आहार, पाणं - पानी, आहरित्तु - लाकर, पणामए - देता है। भावार्थ - कौन उस मृग को औषधि देता है और कौन उसकी सुखसाता पूछता है तथा कौन उसे आहार और पानी लाकर देता है? अर्थात् कोई नहीं। जया से सुही होइ, तया गच्छइ गोयरं। भत्तपाणस्स अट्ठाए, वल्लराणि सराणि य॥१॥ कठिन शब्दार्थ - जया - जब, सुही - सुखी (स्वस्थ), तया - तब, गच्छइ - जाता है, गोयरं - गोचर भूमि (चरागाह) में, भत्तपाणस्स अट्ठाए - भक्त पान (आहार पानी) के लिये, वल्लराणि - वल्लरों (लता निकुंजों), सराणि - जलाशयों में। भावार्थ - जब वह मृग सुखी (नीरोग) हो जाता है तब आहार-पानी के लिए सघन वन में और तालाबों पर गोचरी (मृगचर्या) के लिए जाता है। खाइत्ता पाणियं पाउं, वल्लरेहिं सरेहि य। मिगचारियं चरित्ताणं, गच्छइ मिगचारियं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - खाइत्ता - खाकर, पाणियं - पानी, पाउं - पीकर, वल्लरेहिं - लता कुंजों, सरेहि - सरोवरों में, मिगचारियं - मृगचर्या का, चरित्ताणं - आचरण करके। भावार्थ - सघन वन में घास आदि खा कर और जलाशय में पानी पी कर तथा अपनी इच्छानुसार मृगक्रीड़ा करके वह मृग मृगचर्या में चला जाता है। एवं समुट्टिओ भिक्खू, एवमेव अणेगए। मिगचारियं चरित्ताणं, उई पक्कमइ दिसं॥३॥ कठिन शब्दार्थ - समुट्ठिओ - समुत्थित - संयम में सावधान हुआ, अणेगए - अनेक स्थानों में स्थित हो कर, उहं दिसं - ऊर्ध्वदिशा (मोक्ष) को, पक्कमइ - गमन करता है। भावार्थ - इस प्रकार संयम में सावधान बना हुआ मृग के समान अनेक स्थानों में भ्रमण करने वाला साधु, मृगचर्या का आचरण करके अर्थात् जैसे रोगादि के हो जाने पर मृग; चिकित्सा की अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार चिकित्सा की अपेक्षा न रखता हुआ साधु ऊँची दिशा में अर्थात् मोक्ष में जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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